Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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नववां योनि पद - नैरयिक आदि में सचित्त आदि तीन योनियाँ
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों की क्या सति गोनि हैं, अचित्त योनि है या सचित्ताचित्त योनि ( मिश्र योनि) है ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों की योनि सचित्त नहीं होती है, मिश्र नहीं होती है किन्तु अचित्त
होती है।
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असुरकुमाराणं भंते! किं सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, मीसिया जोणी ? गोयमा ! णो सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, णो मीसिया जोणी, एवं जाव थणियकुमाराणं ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असुरकुमार देवों की योनि क्या सचित्त होती है, अचित्त होती है या मिश्र होती है ?
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उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार देवों के सचित्त योनि नहीं होती, मिश्र योनि नहीं होती, किन्तु अचित्त योनि होती है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों तक समझना चाहिये। अर्थात् दस ही प्रकार के भवनपति देवों के एक अचित्त योनि होती है।
पुढवी काइयाणं भंते! किं सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, मीसियाजोणी ? गोयमा ! सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, मीसिया वि जोणी एवं जाव चउरिदियाणं । सम्मुच्छिम पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं सम्मुच्छिम मणुस्साण य एवं चेव । भवतिय पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं गब्भवक्कंतिय मणुस्साण य णो सचित्ता, णो अचित्ता, मीसिया जोणी । वाणमंतर जोइसिय वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ॥ ३४७ ॥
भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की क्या सचित्त योनि होती है, अचित्त योनि होती है या मिश्र योनि होती है ?
उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिकों की योनि सचित्त भी होती है, अचित्त भी होती है और सचित्ताचित (मिश्र) भी होती है । इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय जीवों तक की योनि के विषय में समझना चाहिये । सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों एवं सम्मूच्छिम मनुष्यों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रियों और गर्भज मनुष्यों की योनि सचित्त भी नहीं होती, अचित्त भी नहीं होती किन्तु मिश्र होती है।
वाणव्यंतर देवों, ज्योतिषी देवों और वैमानिक देवों की योनि के विषय में असुरकुमारों के समान ही समझना चाहिये अर्थात् अचित्त योनि होती है ।
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