Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
नववां योनि पद - नैरयिक आदि में शीत आदि योनियाँ
२६९
.०००००००००००००००००००००००००००
.00000०००००००००००००००००००
योनि वाले नैरयिकों के लिए भी समझ लेना चाहिये। चौथी नरक के ऊपर के प्रतर में रहने वाले सभी नैरयिक शीत योनि वाले हो सकते हैं किन्तु पांचवीं नरक के ऊपर के प्रतर में रहने वाले सभी नैरयिक शीत योनि वाले नहीं होते हैं।
भवनवासी देव आदि की योनियाँ शीतोष्ण क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि दस ही प्रकार के भवनवासी देव, गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय, गर्भज मनुष्य तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के उपपात क्षेत्र शीत और उष्ण दोनों स्पर्शों से परिणत हैं इस कारण से उनकी योनियाँ शीत और उण्ण दोनों स्वभाव वाली (शीतोष्ण) होती है।
देवों के सभी १३ दण्डकों में और संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और संज्ञी मनुष्य में एक शीतोष्णयोनि है। (अर्थात् - देव उत्पत्ति स्थान (शय्या) पर सर्वप्रथम शीतोष्ण पुद्गल ग्रहण करते हैं तथा मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जो सर्व प्रथम आहार ग्रहण करते हैं - वह शीतोष्ण होता है क्योंकि सर्वप्रथम आहार रजो वीर्य' का होता है। उसमें 'रज' (माता का अवयव) आत्म प्रदेश सहित होने से उष्ण तथा 'वीर्य' (पिता का अवयव) आत्म प्रदेश रहित होने से शीत होता है। अतः शीतोष्ण पुद्गल ग्रहण करने से 'शीतोष्णयोनि' होती है। ... तेजस्कायिकों के सिवाय पृथ्वीकायिक आदि जीवों की तीनों प्रकार की योनियाँ होती हैं क्योंकि पृथ्वीकायिक आदि चार एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय, सम्मूछिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय और सम्मूछिम मनुष्यों के उत्पत्ति स्थान शीत स्पर्श वाले, उष्ण स्पर्श वाले और शीतोष्ण स्पर्श वाले होते हैं इस कारण उनकी योनियाँ तीनों प्रकार की बतलाई गई है। तेजस्कायिक (अग्निकायिक) जीव उष्ण योनि के ही । होते हैं। यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है।
तेजस्काय की एक उष्ण योनि ही होती है। (अर्थात् सूक्ष्म बादर तेजस्काय के जीव उत्पत्ति के समय सर्व प्रथम उष्ण स्पर्श वाले पुद्गलों को ही ग्रहण करते हैं) शेष चारों स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और असंज्ञी मनुष्य में तीनों योनियाँ पाई जाती है। सिद्ध भगवान् अयोनिक होते हैं। वनस्पतिकाय में तीनों योनियाँ होती है। वह मात्र प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों की अपेक्षा से ही समझना चाहिये। सूक्ष्म और साधारण वनस्पति जीवों में तो मात्र शीत योनि ही होती है। यह बात आगे की अल्प बहुत्व से स्पष्ट हो जाती है।
एएसि णं भंते! सीयजोणियाणं उसिणजोणियाणं सीओसिणजोणियाणं अजोणियाण य कयरे-कयरे हितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सीओसिण जोणिया, उसिणजोणिया असंखिजगुणा, अजोणिया अणंतगुणा, सीयजोणिया अणंतगुणा॥ ३४५ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org