Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
___पांच प्रदेशी आदि स्कन्धों में जो सातवें भंग की स्थापना है उस में बीच के प्रदेश को 'एक अचरम' तथा चारों तरफ के चार प्रदेशों को उस प्रकार के परिमाण से एक स्कन्ध की विवक्षा करके 'एक चरम' मान लिया है। चारों प्रदेश परस्पर सम्बद्ध (जुड़े हुए) हैं। बीच में अन्तर नहीं है। इसी प्रकार छह प्रदेशी आदि स्कन्धों में पाये जाने वाले 'आठवें भंग की स्थापना' में भी अर्द्धवृत्त की तरह किनारे के चार प्रदेशों के परस्पर सम्बद्ध होने से उनकी चारों प्रदेशों की 'एक चरम' रूप से विवक्षा की है तथा मध्य के दो प्रदेशों को 'बहुत अचरम' रूप से माना गया है।
चौथा भंग (चरम बहुत) - यह भंग किन्हीं भी स्कन्धों में नहीं बताया गया है यद्यपि भगवती सूत्र के शतक २५ उद्देशक ३ में युग्म प्रदेशी प्रतर चौरस संस्थान (चतुः प्रदेशी) में यह घटाया भी है। परन्तु चरम बहुत यह भंग अचरम. व अवक्तव्य के बिना नहीं होना ही आगमकारों को इष्ट लगता है। अत: चौरस संस्थान वाले उपरोक्त आकार को अपेक्षा से चरम एक मान लेना चाहिए। अन्यथा चरम पद में इस भंग का निषेध नहीं किया जाता।
टीकाकार ने अनेक भंगों की स्थापनाएं इस प्रकार से की है कि जिसका आशय ही स्पष्ट नहीं हो पाता। फिर भी टीकाकार कहते हैं कि "यथा कथञ्चन तथा प्रकारे" उस किसी भी प्रकार से स्थापनाएं बना लेनी चाहिए। जिससे बराबर आशय भी समझ में आ जाय और अन्य आगम पाठों के साथ विरोध भी नहीं आवे। इसी उद्देश्य से उपरोक्त स्थापनाएं की गयी हैं।
संस्थान की अपेक्षा चरम अचरम आदि कइ णं भंते! संठाणा पण्णत्ता?
गोयमा! पंच संठाणा पण्णत्ता। तंजहा-परिमंडले, वट्टे, तंसे, चउरंसे, आयए ॥३६६॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे गए हैं?
उत्तर - हे गौतम! संस्थान पांच कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - १. परिमण्डल २. वृत्त ३. त्र्यत्र ४. चतुरस्र और ५. आयत।
विवेचन - पांच प्रकार के संस्थान कहे गये हैं - १. परिमण्डल (गोल चूड़ी के आकार अर्थात् गोल किन्तु बीच में पोला-खाली) २. वृत्त (गोल-रुपया और लड्ड के आकार अर्थात् झालर के आकार बीच में पोला नहीं) ३. त्र्यस्र (त्रिकोण-सिंघाडा के आकार) ४. चतुरस्र (चौकोर-चौकी बाजौट के आकार) ५. आयत (लम्बा-बांस आदि के आकार)।।
परिमंडला णं भंते! संठाणा किं संखिजा, असंखिज्जा, अणंता? गोयमा! णो संखिजा, णो असंखिजा, अणंता। एवं जाव आयता।
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