Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पांचवां विशेष पद - वाणव्यंतर आदि देवों के पर्याय
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प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं ?' ... उत्तर - हे गौतम! एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, किन्तु अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की दृष्टि से भी चतुःस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मन:पर्यवज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है तथा केवलज्ञान के पर्यायों की दृष्टि से तुल्य है, तीन अज्ञान तथा तीन दर्शन के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित है और केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अवगाहना और स्थिति की दृष्टि से चतुःस्थानपतित तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित हीनाधिकता बता कर तथा द्रव्य, प्रदेश तथा केवलज्ञान-केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से परस्पर तुल्यता बता कर मनुष्यों के अनन्त पर्याय सिद्ध किये गए हैं।
पांच ज्ञानों में से चार ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शन क्षायोपशमिक हैं। वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं, किन्तु सब मनुष्यों का क्षयोपशम समान नहीं होता। क्षयोपशम में तरतमता को लेकर,अनन्त भेद होते हैं। अतएव इनके पर्याय षट्स्थानपतित हीनाधिक कहे गये हैं, किन्तु केवलज्ञान और केव्लदर्शन क्षायिक हैं। वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण के सर्वथा क्षीण होने पर ही उत्पन्न होते हैं, अतएव उनमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं होती। जैसा एक मनुष्य का केवलज्ञान या केवलदर्शन होता है, वैसा ही सभी का होता है, इसीलिए केवलज्ञान और केवलदर्शन के पर्याय तुल्य कहे गये हैं।
स्थिति से चउट्ठाणवडिया - पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों की स्थिति अधिक से अधिक तीन पल्योपम की होती है। पल्योपम असंख्यात हजार वर्षों का होता है। अत: उसमें असंख्यातगुणी वृद्धि और हानि सम्भव होने से उसे चतुःस्थानपतित कहा गया है।
वाणव्यंतर आदि देवों के पर्याय वाणमंतरा ओगाहणट्ठयाए ठिईए चउट्ठाणवडिया, वण्णाईहिं छट्ठाणवडिया। जोइसिया वेमाणिया वि एवं चेव, णवरं ठिईए तिट्ठाणवडिया॥ २५६॥
भावार्थ - वाणव्यन्तर देव अवगाहना और स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित कहे गए हैं तथा वर्ण आदि की अपेक्षा से षट्स्थानपतित कहे गये हैं।
ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के पर्यायों की हीनाधिकता भी इसी प्रकार पूर्वसूत्रानुसार समझनी चाहिए। विशेषता यह है कि इन्हें स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित समझना चाहिए।
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