Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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छठा व्युत्क्रांति पद - सान्तर द्वार
१८९
उत्तर - हे गौतम! मनुष्य सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं।
एवं वाणमंतरा जोइसिया सोहम्मीसाण सणंकुमार माहिंद बंभलोय लंतग महासुक्क सहस्सार आणय पाणय आरणच्चुय हिट्ठिम गेविजग मज्झिम गेविजग उवरिम गेविजग विजय वेजयंत जयंत अपराजिय सव्वट्ठसिद्धदेवा य संतरं वि उववजंति णिरंतरं वि उववज्जति॥२९५॥
भावार्थ - इसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, अधस्तन ग्रैवेयक, मध्यम ग्रैवेयक, उपरितन ग्रैवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। .
सिद्धाणं भंते! किं संतरं सिझंति, णिरंतरं सिझंति? गोयमा! संतरं वि सिझंति, णिरंतरं वि सिझंति॥२९६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या सिद्ध भगवान् सान्तर सिद्ध होते हैं या निरन्तर सिद्ध होते हैं? उत्तर - हे गौतम! सिद्ध भगवान् सान्तर भी सिद्ध होते हैं और निरन्तर भी सिद्ध होते हैं। णेरइया णं भंते! किं संतरं उव्वदंति, णिरंतरं उव्वद॒ति?
गोयमा! संतरं वि उव्वद्वृति, णिरंतरं वि उव्वटुंति। एवं जहा उववाओ भणिओ तहा उव्वट्टणा वि सिद्धवजा भाणियव्वा जाव वेमाणिया, णवरं जोइसिय वेमाणिएसु • 'चयणं"ति अहिलावो कायव्वो॥३ दारं ॥ २९७॥
भावार्थ - प्रश्न- हे भगवन् ! नैरयिक सान्तर उद्वर्तते हैं या निरन्तर उद्वर्तते हैं?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक सान्तर भी उद्वर्तते हैं और निरन्तर भी उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार जैसे उपपात के विषय में कहा गया है वैसे ही सिद्धों को छोड़ कर उद्वर्तना के विषय में यावत् वैमानिकों तक कह देना चाहिए। विशेष यह है कि ज्योतिषियों और वैमानिकों के लिए च्यवना शब्द का प्रयोग करना चाहिये।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में चौबीस दण्डकों के जीवों की उत्पत्ति और उद्वर्तना की प्ररूपणा की गयी है। पांच स्थावर जीवों को छोड़ कर सभी संसारी जीवों की सान्तर और निरन्तर दोनों प्रकार से उत्पत्ति और उद्वर्तना होती है। पांच स्थावर में जीव निरन्तर उपजते रहते हैं। केवल मनुष्य में ही सिद्ध बनने की योग्यता है। वह निरन्तर भी सिद्ध हो सकते हैं और सान्तर भी सिद्ध हो सकते हैं। सिद्धि गति में गया हुआ जीव वापिस लौटकर नहीं आता है। इसलिए सिद्ध जीवों में "चवन" और उद्वर्तन नहीं
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