Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
असुरकुमाराणं देवा णं भंते! किं संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ?
गोयमा! संतरं वि उववज्जंति, णिरंतरं वि उववज्रंति ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असुरकुमार देव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न
होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं । एवं जाव थणियकुमारा णं देवा संतरं वि उववज्जंति, णिरंतरं वि उववजंति
॥ २९३ ॥
भावार्थ - इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देव तक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं।
पुढवीकाइया णं भंते! किं संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ?
गोयमा ! णो संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ।
भावार्थ उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं। एवं जाव वणस्सइकाइया णो संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ।
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प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर
भावार्थ - इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक सान्तर उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं ।
बेइंदिया णं भंते! किं संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ?
गोयमा ! संतरं वि उववज्जंति, णिरंतरं वि उववज्जंति ।
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भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न
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होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं । एवं जाव पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया ॥ २९४॥
भावार्थ - इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों तक कह देना चाहिये ।
मणुस्सा णं भंते! किं संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ? गोयमा! संतरं वि उववज्जंति, णिरंतरं वि उववज्जंति ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्य सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ?
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