SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ ................................................................................................................................. प्रज्ञापना सूत्र असुरकुमाराणं देवा णं भंते! किं संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ? गोयमा! संतरं वि उववज्जंति, णिरंतरं वि उववज्रंति । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असुरकुमार देव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं । एवं जाव थणियकुमारा णं देवा संतरं वि उववज्जंति, णिरंतरं वि उववजंति ॥ २९३ ॥ भावार्थ - इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देव तक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। पुढवीकाइया णं भंते! किं संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ? गोयमा ! णो संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति । भावार्थ उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं। एवं जाव वणस्सइकाइया णो संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति । - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर भावार्थ - इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक सान्तर उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं । बेइंदिया णं भंते! किं संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ? गोयमा ! संतरं वि उववज्जंति, णिरंतरं वि उववज्जंति । Jain Education International भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न - होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं । एवं जाव पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया ॥ २९४॥ भावार्थ - इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों तक कह देना चाहिये । मणुस्सा णं भंते! किं संतरं उववज्जंति, णिरंतरं उववज्जंति ? गोयमा! संतरं वि उववज्जंति, णिरंतरं वि उववज्जंति । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्य सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy