SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा व्युत्क्रांति पद - सान्तर द्वार . १८७ तिरिक्खजोणिया णं भंते! किं संतरं उववजंति? णिरंतरं उववजंति? गोयमा! संतरं वि उववजंति, णिरंतरं वि उववजंति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! तिर्यंच योनिक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं? उत्तर - हे गौतम! तिथंच जीव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। मणुस्सा णं भंते! किं संतरं उववजंति, णिरंतरं उव्वजति? गोयमा! संतरं वि उववजति, णिरंतरं वि उववति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्य सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं? उत्तर - हे गौतम! मनुष्य सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। देवा णं भंते! किं संतरं उववजंति, णिरंतरं उववजतिं? गोयमा! संतरं वि उववजंति, णिरंतरं वि उववति॥२९१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! देव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चार गति के जीवों की सान्तर और निरन्तर उत्पत्ति की प्ररूपणा की गयी है। बीच बीच में कुछ समय छोड़ कर व्यवधान से उत्पन्न होना सान्तर उत्पन्न होना कहलाता है और प्रति समय लगातार बिना व्यवधान के उत्पन्न होना, बीच में कोई भी समय खाली न जाना निरन्तर उत्पन्न होना कहलाता है। चारों गति के जीव सान्तर और निरन्तर दोनों प्रकार से उत्पन्न होते हैं। रयणप्पभा पुढवि णेरइया णं भंते! किं संतरं उववज्जति, णिरंतरं उववज्जति? गोयमा! संतरं वि उववजंति, णिरंतरं वि उववजंति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए संतरं वि उववजंति, णिरंतरं वि उववति॥२९२॥ भावार्थ - इसी प्रकार अधःसप्तम (सातवीं नरक) पृथ्वी तक के नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy