Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
छठा व्युत्क्रांत पद - कुतो द्वार
२११
. गोयमा! दोहितो वि उववजंति, एवं जाव वणस्सइकाइया चउक्कएणं भेएणं उववाएयव्वा॥३११॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! यदि पृथ्वीकायिक बादर पृथ्वीकायिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्तकों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तकों से आकर उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! दोनों से ही आकर उत्पन्न होते हैं।
इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों तक चार-चार भेद करके उनकी उत्पत्ति के विषय में कह देना चाहिये।
विवेचन - पृथ्वीकायिक आदि पांचों एकेन्द्रिय जीव पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय में उत्पन्न हो सकते हैं। इस प्रकार पांचों एकेन्द्रियों का परस्पर में उत्पाद कह देना चाहिए।
जइ बेइंदिय-तिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं पजत्तग बेइंदिएहितो उववजंति, अपजत्तग बेइंदिएहितो उववजंति?
गोयमा! दोहितो वि उववजति। एवं तेइंदियचउरिदिएहितो वि उववजंति।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव यदि बेइन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से आकर उत्पन्न होतें हैं तो क्या पर्याप्तक बेइन्द्रिय तिर्यंचों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तक बेइन्द्रिय तिर्यंचों से आकर उत्पन्न होते हैं?
उत्तर - हे गौतम! दोनों से ही आकर उत्पन्न होते हैं। . इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं।
जइ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति किं जलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, एवं जेहिंतो णेरइयाणं उववाओ भणिओ तेहिं तो एएसिं वि भाणियव्वो, णवरं पज्जत्तग अपज्जत्तगेहिंतो वि उववजंति, सेसं तं चेव ॥३१२॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव यदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं?
उत्तर - हे गौतम! इसी प्रकार जिन-जिन से नैरयिकों के उपपात के विषय में कहा है उन उन गे पृथ्वीकायिकों से लेकर वनस्पतिकाविकों तक का भी उत्पाद कह देना चाहिये। विशेष यह है कि पर्याप्तकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं और अपर्याप्तकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। शेष सब पूर्व के अनुसार समझ लेना चाहिये।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org