Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२१४
प्रेज्ञापना सूत्र
4.
कहलाते हैं और नवग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तर विमान के देव कल्पातीत कहलाते हैं। उपपन्न का अर्थ है युक्त - सहित और अतीत का अर्थ है-रहित।
प्रश्न - कल्पोपपन्न और कल्पातीत का क्या अर्थ है ?
उत्तर - "कल्प" का अर्थ है मर्यादा। जिन देवों में इन्द्र, सामानिक, आभियोगिक आदि छोटे बड़े की मर्यादा है उन्हें कल्पोपपन्न कहते हैं। यह मर्यादा बारहवें देवलोक तक है। आगे नवग्रैवेयक
और पांच अनुत्तर विमान के देवों में छोटे बड़े की मर्यादा नहीं है किन्तु सभी देव अपने आपको 'अहमिन्द्र' (मैं इन्द्र हूँ) समझते हैं। इसलिए वे कल्पातीत देव कहलाते हैं।
जइ कप्पोवग वेमाणिय देवेहिंतो उववजंति किं सोहम्मेहिंतो उववजंति जाव अच्चुएहिंतो उववजंति?
गोयमा! सोहम्मीसाणेहिंतो उववजंति, णो सणंकुमार जाव अच्चुएहितो उववजंति। एवं आउकाइया वि। एवं तेउवाउकाइया वि, णवरं देववजेहिंतो उववजंति। वणस्सइकाइया जहा पुढवीकाइया। बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया एए जहा तेउवाऊ देववजेहिंतो भाणियव्वा ॥३१४॥
भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन्! यदि पृथ्वीकायिक जीव कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे सौधर्म कल्प के देवों से यावत् अच्युत कल्प के देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सौधर्म कल्प और ईशान कल्प के देवों से आकर उत्पन्न होते हैं किन्तु सनत्कुमार कल्प से लेकर अच्युत कल्प तक के देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। ... इसी प्रकार अप्कायिकों के उपपात के विषय में कहना चाहिए। इसी प्रकार तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों के उपपात के विषय में कहना चाहिये। विशेषता यह है कि देवों को छोड़ कर शेष नैरयिकों, तिर्यंचों तथा मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। वनस्पतिकायिकों का उपपात पृथ्वीकायिकों के उपपात के समान समझना चाहिए। ___बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों का उपपात तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों के उपपात के समान समझना चाहिये। देवों को छोड़ कर शेष नैरयिकों, तिर्यंचों तथा मनुष्यों से इनकी उत्पत्ति समझनी चाहिये।
विवेचन - पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय इन तीनों में नैरयिक तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न तो होते ही हैं किन्तु देवों में से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों में से पहला सौधर्म देवलोक तथा दूसरा ईशान देवलोक इन दो वैमानिक देवलोकों से आकर उत्पन्न हो सकते हैं। तेउकाय, वायुकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रियों में आकर किसी भी जाति के देव उत्पन्न
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org