Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आठवाँ संज्ञा पद - संज्ञाओं के भेद
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उत्तर - वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होने वाली आहारादि की प्राप्ति के लिए आत्मा की क्रिया विशेष को संज्ञा कहते हैं । अथवा जिन बातों से यह जाना जाय कि जीव आहार आदि को चाहता है उसे संज्ञा कहते हैं । किसी के मत से मानसिक ज्ञान ही संज्ञा है अथवा जीव का आहारादि विषयक चिन्तन संज्ञा है। इसके दस भेद हैं
१. आहार संज्ञा - क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से कवल आदि आहार के लिए पुद्गल ग्रहण करने की इच्छा को आहार संज्ञा कहते हैं।
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२. भय संज्ञा - भय मोहनीय कर्म के उदय से व्याकुल चित्त वाले पुरुष का भयभीत होना, घबराना, रोमाञ्च, शरीर का काँपना आदि क्रियाएं भय संज्ञा है।
३. मैथुन संज्ञा - पुरुष वेद मोहनीय कर्म के उदय से स्त्री के अंगों को देखने, छूने आदि की इच्छा एवं स्त्री वेद मोहनीय कर्म के उदय से पुरुष के अङ्गों को देखने छूने आदि इच्छा तथा नपुंसक वेद के उदय से उभय (पुरुष और स्त्री दोनों) के अङ्ग आदि को देखने छूने की इच्छा तथा उससे होने वाले शरीर में कम्पन्न आदि को जिन से मैथुन की इच्छा जानी जाय, मैथुन संज्ञा कहते हैं ।
४. परिग्रह संज्ञा - लोभरूप कषाय मोहनीय कर्म के उदय से संसार बन्ध के कारणों में आसक्ति पूर्वक सचित्त और अचित्त द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा परिग्रह संज्ञा कहलाती है ।
५. क्रोध संज्ञा - क्रोध रूप कषाय मोहनीय कर्म के उदय से आवेश में भर जाना, मुँह का सूखना, आँखें लाल हो जाना और काँपना आदि क्रियाएँ क्रोध संज्ञा हैं।
६. मान संज्ञा मान रूप कषाय मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा के अहङ्कार (अभिमान) आदि रूप परिणामों को मान संज्ञा कहते हैं।
७. माया संज्ञा - माया रूप कषाय मोहनीय कर्म के उदय से बुरे भाव लेकर दूसरे को ठगना, झूठ बोलना आदि माया संज्ञा है ।
८. लोभ संज्ञा - लोभ रूप कषाय मोहनीय कर्म के उदय से सचित्त, अचित्त और मिश्र पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा करना लोभ संज्ञा है ।
९. ओघ संज्ञा - मतिज्ञानावरणीय आदि के क्षयोपशम से शब्द और अर्थ के सामान्य ज्ञान को ओघ संज्ञा कहते हैं।
१०. लोक संज्ञा - सामान्य रूप से जानी हुई बात को विशेष रूप से जानना लोकसंज्ञा है । अर्थात् दर्शनोपयोग को ओघ संज्ञा तथा ज्ञानोपयोग को लोकसंज्ञा कहते हैं। किसी के मत से ज्ञानोपयोग ओघ संज्ञा है और दर्शनोपयोग लोकसंज्ञा । सामान्य प्रवृत्ति को ओघसंज्ञा कहते हैं तथा लोक दृष्टि को लोकसंज्ञा कहते हैं, यह भी एक मत है।
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