Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
......... एवं तेइंदिया चउरिदिया। संमुच्छिम पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया गब्भवक्कं-तिय पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया सम्मुच्छिममणुस्सा, वाणमंतर जोइसिय सोहम्मीसाण सणंकुमार माहिद बंभलोय लंतग महासुक्क सहस्सारकप्प देवा एए जहा णेरइया। गब्भवक्कंतियमणुस्सा आणय पाणय आरणच्चुय गेवेजग अणुत्तरोववाइया य एए जहण्णेणं एगो वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखिजा उववजंति, णो असंखिज्जा उववज्जति॥३०॥
भावार्थ - इसी प्रकार तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, सम्मूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक, सम्मूर्छिम मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, 'ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र एवं सहस्रार कल्प के देव इन सबका वर्णन नैरयिकों की तरह समझना चाहिये।
गर्भज मनुष्य, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, नौ ग्रैवेयक, पांच अनुत्तरौपपातिक देव, ये सब जघन्य एक दो या तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं।
विवेचन - समुच्चय नरक गति की तरह सात नरक, दस भवनपति, तीन विकलेन्द्रिय, सम्मूछिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय, गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय, सम्मूर्छिम यानी असन्नी मनुष्य, वाणव्यन्तर देव, ज्योतिषी देव
और पहले देवलोक से आठवें देवलोक तक के देव, ये ३३ बोल एक समय में जघन्य १-२-३ उत्कृष्ट संख्यात यावत् असंख्यात उत्पन्न होते हैं। गर्भज मनुष्य, नववें से बारहवें देवलोक तक, नवग्रैवेयक की तीन त्रिक, पांच अनुत्तर विमान इन तेरह बोल में एक समय में जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। आनत आदि देवलोकों में एक समय में संख्यात ही उत्पन्न होने का कारण है कि आनत आदि देवलोकों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं जो कि संख्यात ही हैं। तिर्यंच वहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव मरकर उत्कृष्ट आठवें देवलोक तक जा सकते हैं उससे ऊपर नहीं। ..
सिद्धाणं भंते! एगसमएणं केवइया सिझंति? गोयमा! जहण्णेणं एगो वा, दो वा, तिणि वा, उक्कोसेणं अट्ठसयं॥३०१॥ भावार्थ - हे भगवन् ! सिद्ध भगवान् एक समय में कितने सिद्ध होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सिद्ध भगवान् एक समय में जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट एक सौ आठ . सिद्ध हो सकते हैं।
णेरइया णं भंते! एगसमएणं केवइया उव्वटुंति?
गोयमा! जहण्णेणं एगो वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखिजा वा, असंखिजा वा उव्वटुंति, एवं जहा उववाओ भणिओ तहा उव्वट्टणा वि सिद्धवजा
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