Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
उत्कृष्ट अवगाहना वाला नैरयिक यदि सम्यग्दृष्टि हो तो तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि हो तो तीन अज्ञान नियमतः होते हैं। . मध्यम ( अजघन्य-अनुत्कृष्ट) अवगाहना का अर्थ - जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के बीच की अवगाहना अजघन्य-अनुत्कृष्ट या मध्यम अवगाहना कहलाती है। इस अवगाहना का जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के समान नियत एक स्थान नहीं है। सर्वजघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष की होती है। इन दोनों के बीच की जितनी भी अवगाहनाएं होती हैं, वे सब मध्यम अवगाहना की कोटि में आती है। तात्पर्य यह है कि मध्यम . अवगाहना सर्वजघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग अधिक से लेकर अंगुल के असंख्यातवें भाग कम पांच सौ धनुष की समझनी चाहिए। यह अवगाहना सामान्य नैरयिक की अवगाहना के समान चतुःस्थानपतित हो सकती है।
जहण्णठिइयाणं भंते! णेरइयाणं केवइया पजवा पण्णत्ता? . गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं।
से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-'जहण्णठिइयाणं णेरइयाणं अणंता पजवा ! पण्णत्ता'?
गोयमा! जहण्णठिइए णेरइए जहण्णठिइयस्स रइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तुल्ले, वण्ण गंध रस फास पजवेहि, तिहिं णाणेहिं, तिहिं अण्णाणेहिं, तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसठिइए वि। अजहण्णमणुक्कोसठिइए वि एवं चेव, णवरं सट्ठाणे चउट्ठाणवडिए॥२५८॥
प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य स्थिति वाला नैरयिक दूसरे जघन्य स्थिति वाले नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तथा तीन ज्ञान, तीन अज्ञान एवं तीन दर्शनों की अपेक्षा षट्स्थानपतित है।
इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिक के विषय में भी यथायोग्य तुल्य, चतुःस्थानपतित षट्स्थानपतित आदि कहना चाहिए।
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