Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले नैरयिकों के पर्याय
बोहियणाणी वि एवं चेव, णवरं आभिणिबोहियणाण पज्जवेहिं सट्ठाणे छट्टाणवडिए । एवं सुयणाणी ओहिणाणी वि, णवरं जस्स णाणा तस्स अण्णाणा णत्थि । जहा to हा अण्णाणा वि भाणियव्वा, णवरं जस्स अण्णाणा तस्स णाणा ण भवंति । प्रश्न - हे भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ?"
उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी, दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतुः स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से भी चतुःस्थानपतित है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है तथा तीन दर्शनों की अपेक्षा भी षट्स्थानपतित है ।
इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में भी समझ लेना चाहिए ।
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मध्यम (अजघन्य - -अनुत्कृष्ट) आभिनिबोधिक ज्ञानी के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि वह आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की की अपेक्षा से भी स्वस्थान ..में षट्स्थानपतित है।
श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार (आभिनिबोधिकज्ञानीपर्यायवत्) जानना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके ज्ञान होता है, उसके अज्ञान नहीं होता ।
जिस प्रकार त्रिज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में कहा, उसी प्रकार त्रिअज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके अज्ञान होते हैं, उसके ज्ञान नहीं होते ।
विवेचन- जिस नैरयिक में ज्ञान होता है, उसमें अज्ञान नहीं होता और जिसमें अज्ञान होता है उसमें ज्ञान नहीं होता, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं । सम्यग्दृष्टि को ज्ञान और मिथ्यादृष्टि को अज्ञान होता है। जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह मिध्यादृष्टि नहीं होता और जो मिथ्यादृष्टि होता है, वह सम्यक् दृष्टि नहीं होता।
जहण्णचक्खुदंसणीणं भंते! णेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ?
• गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं।
से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ - ' जहण्णचक्खुदंसणीणं णेरइयाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता' ?
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