Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पांचवां विशेष पद
- जघन्य आदि अवगाहना वाले मनुष्यों के पर्याय
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उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य अवधि ज्ञानी मनुष्य, दूसरे जघन्य अवधि ज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों एवं दो ज्ञानों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, मनः पर्यवज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट् - स्थानपतित है ।
इसी प्रकार उत्कृष्ट अवधि ज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी कह देना चाहिए ।
इसी प्रकार मध्यम अवधि ज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि - 'अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्वस्थान में षट्स्थानपतित है ।
जहा ओहिणाणी तहा मणपज्जवणाणी वि भाणियव्वे, णवरं ओगाहणट्टयाए तिट्ठाणवडिए । जहा आभिणिबोहियणाणी तहा मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी वि भाणियो । जहा ओहिणाणी तहा विभंगणाणी वि भाणियव्वे, चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी य जहा आभिणिबोहियणाणी, ओहिदंसणी जहा ओहिणाणीं । जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णत्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा णत्थि, जत्थ दंसणा तत्थ णाणा वि अण्णाणा वि ।
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भावार्थ - जैसा जघन्य - उत्कृष्ट - मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में कहा गया है, वैसा ही जघन्यादि युक्त मनः पर्यायज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि अवगाहना की अपेक्षा से वह त्रिस्थानपतित है। जैसा जघन्यादि युक्त आभिनिबोधिक ज्ञानियों के पर्यायों के विषय में कहा गया है, वैसा ही मति- अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी कह देना चाहिए। जिस प्रकार जघन्यादि विशिष्ट अवधिज्ञानी मनुष्यों की पर्यायों के विषय में कथन किया गया है, उसी प्रकार विभंगज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी कथन कर देना चाहिए ।
चक्षु दर्शनी और अचक्षु दर्शनी मनुष्यों का पर्यायविषयक कथन आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के समान है। अवधि दर्शनी का पर्यायविषयक कथन अवधि ज्ञानी मनुष्यों के पर्यायविषयक कथन के समान है। जहाँ ज्ञान होते हैं, वहाँ अज्ञान नहीं होते हैं, जहाँ अज्ञान होते हैं, वहाँ ज्ञान नहीं होते और जहाँ दर्शन हैं, वहाँ ज्ञान एवं अज्ञान दोनों में से कोई भी संभव है।
केवलणाणीणं भंते! मणुस्साणं केवईया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अनंता पज्जवा पण्णत्ता ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! केवलज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ?
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