Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
गोयमा ! जहण्णचक्खुदंसणी णं णेरइए जहण्णचक्खुदंसणिस्स णेरइयस्स दव्वट्टयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्ण-गंध-रस - फास - पज्जवेहिं तिहिं णाणेहिं तिहिं अण्णाणेहिं छट्ठाणवडिए, चक्खुदंसण पज्जवेहिं तुल्ले, अचक्खुदंसण पज्जवेहिं ओहिंदंसण पज्जवेहिं छट्ठाणवडिए । एवं उक्कोसचक्खुदंसणी वि । अजहण्णमणुक्कोसचक्खुदंसणी वि एवं चेव, णवरं सहाणे छट्टाणवडिए । एवं अचक्खुदंसणी वि ओहिदंसणी वि ॥ २६० ॥
प्रश्न- हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ?'
उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक, दूसरे जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुः स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुः स्थानपतित है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तथा तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की अपेक्षा से, षट्स्थानपतित है । चक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।
इसी प्रकार उत्कृष्ट चक्षुदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में भी समझ लेना चाहिए।
मध्यम चक्षुदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि स्वस्थान में भी वह षट्स्थानपतित होता है।
चक्षुदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों की तरह ही अचक्षुदर्शनी नैरयिकों एवं अवधिदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में भी जान लेना चाहिए।
जघन्य आदि अवगाहना वाले देवों के पर्याय
जहण्णोगाहणगाणं भंते! असुरकुमाराणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ?
गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता ।
भावार्थ प्रश्न - हे भगवन्! जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमारों के कितने पर्याय कहे गए हैं ?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमारों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ 'जहण्णोगाहणगाणं असुरकुमाराणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता'?
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