Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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भाग अधिक या संख्यात गुण अधिक होता है। इनकी स्थिति में चतुःस्थानपतित हीनाधिकता नहीं होती, क्योंकि इनमें असंख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणवृद्धि संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि पृथ्वीकायिक की सर्वजघन्य आयु क्षुल्लकभव ग्रहणपरिमित है। क्षुल्लकभव का परिमाण दो सौ छप्पन आवलिकामात्र है। दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है और इस एक मुहूर्त में ६५५३६ भव होते हैं। इसके अतिरिक्त पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति भी संख्यात हजारों वर्षों की ही होती है। अतः इनमें असंख्यात गुण हानि-वृद्धि (न्यूनाधिकता) नहीं हो सकती। असंख्यात भाग, संख्यात भाग और संख्यात गुण हानिवृद्धि इस प्रकार है। जैसे-एक पृथ्वीकायिक की स्थिति परिपूर्ण २२ हजार वर्ष की है और दूसरे की एक समय कम २२००० वर्ष की है, इनमें से परिपूर्ण २२००० वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक की अपेक्षा, एक समय कम २२००० वर्ष की स्थिति वाला पृथ्वीकायिक असंख्यात भाग हीन कहलाएगा, जबकि दूसरा असंख्यात भाग अधिक कहलाएगा। इसी प्रकार एक की परिपूर्ण २२००० वर्ष की स्थिति है, जबकि दूसरे की अन्तर्मुहूर्त आदि कम २२००० वर्ष की है।
अन्तर्मुहूर्त आदि बाईस हजार वर्ष का संख्यातवां भाग है। अत: पूर्ण २२ हजार वर्ष की स्थिति वाले की 'अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम २२ हजार वर्ष की स्थिति वाला संख्यात भाग हीन है और उसकी अपेक्षा पूर्ण २२००० वर्ष की स्थिति वाला संख्यात भाग अधिक है। इसी प्रकार एक पृथ्वीकायिक की पूरी २२००० वर्ष की स्थिति है और दूसरे की अन्तर्मुहूर्त की, एक मास की, एक वर्ष की या एक हजार वर्ष की है। अन्तर्मुहूर्त आदि किसी नियत संख्या से गुणा करने पर २२००० वर्ष की संख्या होती है। अतः अन्तर्मुहूर्त आदि की आयुवाला पृथ्वीकायिक, पूर्ण बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले की अपेक्षा संख्यात गुण हीन है और इसकी अपेक्षा २२००० वर्ष की स्थिति वाला पृथ्वीकायिक संख्यात गुण अधिक है। ___भावों (वर्णादि या मति-अज्ञानादि के पर्यायों) की अपेक्षा से षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता होती है, वहाँ उसे इस प्रकार समझना चाहिए-एक पृथ्वीकायिक, दूसरे पृथ्वीकायिक से अनन्तभागहीन, असंख्यात भागहीन और संख्यात भागहीन अथवा संख्यात गुणहीन, असंख्यात गुणहीन और अनन्त गुणहीन तथा अनन्त भाग-अधिक, असंख्यात भाग अधिक और संख्यात भाग अधिक तथा संख्यात गुणा, असंख्यात गुणा और अनन्त गुणा अधिक है।
अपकायिकों के पर्याय आउकाइयाणं भंते! केवइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अप्कायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! अप्कायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं।
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