Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
सागरोपम की स्थिति वाला है। अतः एक-दो समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला नैरयिक पूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरंयिक से असंख्यात भाग हीन हुआ, जबकि परिपूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला नैरयिक एक दो समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक से असंख्यात भाग अधिक हुआ। क्योंकि एक-दो समय, सागरोपम के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। इसी प्रकार एक नैरयिक तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है और दूसरा पल्योपम कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है। दस कोटाकोटी पल्योपम का एक सागरोपम होता है। इस दृष्टि से पल्योपमों से हीन स्थिति वाला नैरयिक, पूर्ण तेतीस सागरोपम स्थिति वाले नैरयिक से संख्यातभाग हीन स्थिति वाला हुआ, जबकि दूसरा पहले से संख्यात भाग अधिक स्थिति वाला हुआ। इसी प्रकार एक नैरयिक तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है, जबकि दूसरा एक सागरोपम की स्थिति वाला है इनमें एक सागरोपम की स्थिति वाला तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक से संख्यात गुण-हीन हुआ। क्योंकि एक सागरोपम को तेतीस सागरोपम से गुणा करने पर तेतीस सागर होते हैं। इसके विपरीत तेतीस सागरोपम स्थिति वाला नैरयिक एक सागरोपम स्थिति वाले नैरयिक से संख्यात गुण अधिक हुआ। इसी प्रकार एक नैरयिक दस हजार वर्ष की स्थिति वाला है, जबकि दूसरा नैरयिक है - तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला। दस हजार को असंख्यात वार गुणा करने पर तेतीस सागरोपम होते हैं। अतएव दस हजार वर्ष की स्थिति वाला नैरयिक, तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक की अपेक्षा असंख्यात गुण हीन स्थिति वाला हुआ, जबकि उसकी अपेक्षा तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला असंख्यात गुण अधिक स्थिति वाला हुआ।
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भाव की अपेक्षा से नैरयिकों की षट्स्थानपतित हीनाधिकता पुद्गल - विपाकी नामकर्म के उदय से होने वाले औदयिक भाव का आश्रय लेकर वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की हीनाधिकता की प्ररूपणा की गई है । यथा १. कृष्ण (काला) वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से एक नैरयिक दूसरे नैक से अनन्त भाग हीन, असंख्यात भाग हीन, संख्यात भाग हीन होता है, अथवा संख्यात गुण हीन, असंख्यात गुण हीन या अनन्त गुण हीन होता है। यदि अधिक होता है तो अनन्त भाग, असंख्यात भाग या संख्यात भाग अधिक होता है अथवा संख्यात गुण, असंख्यात गुण या अनन्त गुण अधिक होता है । यह षट्स्थानपतित हीनाधिकता है। इस षट्स्थानपतित हीनाधिकता में जो जिससे अनन्त भाग- हीन होता है, वह सर्वजीवानन्तक (सर्व जीव रूप अनन्त राशि) से भाग करने पर जो प्राप्त हो, उसे अनन्तवें भाग से हीन समझना चाहिए। जो जिससे असंख्यात भाग हीन है, असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाणराशि से भाग करने पर जो प्राप्त हो, उतने भाग कम समझना चाहिए। जो जिससे संख्यातभाग हीन हो, उसे उत्कृष्ट संख्यंक से भाग करने पर जो प्राप्त हो, उससे हीन समझना चाहिए। गुणनसंख्या में जो जिससे
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