Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गोयमा ! एवं वुच्चइ - 'णेरड्याणं णो संखिता, णो असंखिज्जा, अनंता पज्जवा पण्णत्ता' ।। २४८ ॥
इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञान पर्यायों, श्रुतज्ञान पर्यायों, अवधिज्ञान पर्यायों, मति - अज्ञान पर्यायों, श्रुत - अज्ञान पर्यायों, विभंगज्ञान ( अवधि अज्ञान) पर्यायों, चक्षुदर्शन पर्यायों, अचक्षुदर्शन पर्यायों तथा अवधिदर्शन पर्यायों की अपेक्षा से (एक नैरयिक दूसरे नैरयिक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है। हे गौतम! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है, कि 'नैरयिकों के पर्याय संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त कहे गये हैं।'
प्रज्ञापना सूत्र
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में अवगाहना, स्थिति, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं क्षायोपशमिक भाव रूप ज्ञानादि के पर्यायों की अपेक्षा से हीनाधिकता का प्रतिपादन करके नैरयिकों के अनन्त पर्यायों को सिद्ध किया गया है।
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द्रव्य की अपेक्षा से नैरयिकों में तुल्यता - प्रत्येक नैरयिक दूसरे नैरधिक से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है, अर्थात्- प्रत्येक नैरयिक एक-एक जीव द्रव्य है । द्रव्य की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है । इस कथन के द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रत्येक नैरयिक अपने आप में परिपूर्ण एवं स्वतंत्र जीव द्रव्य है । यद्यपि कोई भी द्रव्य, पर्यायों से सर्वथा रहित कदापि नहीं हो सकता, तथापि पर्यायों की विवक्षा न करके केवल शुद्ध द्रव्य की विवक्षा की जाए तो एक नैरयिक से दूसरे नैरयिक में कोई विशेषता नहीं है।
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प्रदेशों की अपेक्षा से नैरयिकों में तुल्यता- प्रदेशों की अपेक्षा से भी सभी नैरयिक परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि प्रत्येक नैरयिक जीव लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेशी होता है। किसी भी नैरयिक के जीव प्रदेशों में किञ्चित् भी न्यूनाधिकता नहीं है।
अवगाहना की अपेक्षा से नैरयिकों में हीनाधिकता अवगाहना का अर्थ सामान्यतया आकाशप्रदेशों को अवगाहन करना उनमें समाना ( समावेश) होता है । यहाँ उसका अर्थ है - शरीर की ऊँचाई। अवगाहना ( शरीर की ऊँचाई) की अपेक्षा से सब नैरयिक तुल्यं नहीं हैं। जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के वैक्रियशरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल (७ ॥ ॥ धनुष ६ अंगुल) की है। आगे-आगे की नरक पृथ्वियों में उत्तरोत्तर दुगुनी - दुगुनी अवगाहना होती है। सातवीं नरकपृथ्वी में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है । इस दृष्टि से किसी नैरयिक से किसी नैरयिक की अवगाहना हीन है, किसी की अधिक है, जबकि किसी की तुल्य भी है। यदि कोई नैरयिक अवगाहना से हीन (न्यून) होगा तो वह असंख्यात भाग या संख्यात भाग हीन होगा, अथवा संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन होगा, किन्तु यदि कोई नैरयिक अवगाहना में अधिक होगा तो असंख्यात भाग या
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