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परंपरा, समाज या किसी और से उधार ले लिया है तो इसका कभी उत्तर नहीं दिया जा सकेगा क्योंकि पहली बात तो यही है कि यह तुम्हारी समस्या ही नहीं थी। जैसे कि तुमने किसी से कोई बीमारी सीख ली हो।
अभी उस रात को ही मैं पढ़ रहा था कि एक प्रसिद्ध चिकित्सक के क्लीनिक में एक नोटिस, विशेषकर महिलाओं के लिए, लगा था, उसमें लिखा कृपया अन्य महिलाओं के साथ अपनी बीमारियों
और लक्षणों के बारे में बात न करें-लक्षणों का आदान-प्रदान न करें, क्योंकि यह डाक्टर को उलझा देगा। डाक्टर की प्रतीक्षा करती हई महिलाएं बात तो करेंगी ही, और एक-दूसरे के लक्षणों से प्रभावित भी जरूर होंगी। और निश्चित रूप से यह डाक्टरों को उलझाता है, क्योंकि फिर वह नहीं जान पाता कि बात क्या है।
ऐसे भी लोग हैं जो अखबारों में दवाओं के विज्ञापन पढ़ कर बीमारियां ले लेते हैं। मैने एक आदमी के बारे में सुना है जिसने आधी रात में अपने चिकित्सक को फोन किया। निःसंदेह आधी रात में अपनी नींद तोड़े जाने से डाक्टर क्रोधित हुआ। उसने फोन उठाया, पूछा, बात क्या है? और उस व्यक्ति ने बीमारी का वर्णन करना शुरू कर दिया। डाक्टर ने कहा: संक्षेप में बताएं, मैंने भी समाचार पत्रिकाओं में यह लेख पड़ा है, संक्षिप्त करें।
लोग अपनी बीमारियां पत्रिकाओं से सीख लेते हैं। जरा अपने मन को देखो। यह इतना नकलची है कि यह दूसरों की समस्याओं से प्रभावित हो सकता है, और तुम्हें इतना प्रभावग्राही बना सकता है कि तुम उसे अपनी समस्या के रूप में सोच सकते हो। फिर इसे सुलझाने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि पहली बात तो यही है कि यह तुम्हारी समस्या है ही नहीं।
मेरे देखने में यही आया है : अगर कोई समस्या असली है तो ही इसे सुलझाया जा सकता है। मैं समस्या को इसी भांति परिभाषित करता हूं : यह कि इसे सुलझाया जा सकता है। यदि इसे सुलझाया न जा सके तो यह समस्या नहीं है। कोई रोग, तब ही रोग है, जब कि उसका इलाज किया जा सके। सभी रोगों का उपचार हो सकता है, सैद्धांतिक रूप से संभव है ही। लेकिन अगर तुम्हें बीमारी है ही नहीं, तो तुम्हें असाध्य बीमारी है। तब कोई सहायता न कर सकेगा, तब यह सिर्फ तुम्हारे मन में ही है। कोई दवा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकती।
इसलिए समस्या के बारे में समझने वाली पहली बात तो यह कि इसे अस्तित्वगत होना चाहिए, सैदधांतिक, वैचारिक, दर्शन शास्त्रीय नहीं। बल्कि इसे दर्शन शास्त्रीय न होकर मनोवैज्ञानिक होना चाहिए, और इसे जीवन के संघर्ष से उपजना चाहिए।
क्योंकि तुम मृत विचारों में जकड़े हुए हो, इसी से तुम्हारी नब्बे प्रतिशत समस्याएं जन्मती हैं, और तुम उन्हीं विचारों से चिपकते हो। जब कोई ऐसी परिस्थिति सामने आती है जो तुम्हारे विचारों के अनकूल न हो, तभी समस्या उठ खड़ी होती है और तुम विचार बदलने के स्थान पर परिस्थिति को