Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ उसकी विधि का आगे वर्णन कर रहे हैं। अतएव अभी उसको गौण करके पहले जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्ता को घटित करते हैं। जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्ताविधि
बंधति सत्त अट्ठ व उइन्न सत्तट्ठगा उ सव्वे वि । सत्तछेगबंधगभंगा
पज्जत्तसन्निमि ॥४॥ शब्दार्थ-बंधंति-बांघते हैं, सत्त अट्ठ-सात, आठ, व-अथवा, उइन्न-उदय, सत्त-सत्ता में, अट्ठगा--आठ, उ-और, सव्वे वि-सभी, सत्तट्ठछग-सात, आठ, छह और एक, बंधगभंगा-बंध के भंग, पज्जत्तन्निमि -पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान में ।
गाथार्थ-सभी जीव सात अथवा आठ कर्मों को बांधते हैं तथा उदय और सत्ता में आठों कर्म होते हैं। मात्र पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान में सात, आठ, छह और एक इस प्रकार बंध के चार भंग होते हैं।
विशेषार्थ-जीवस्थानों के चौदह भेद और उनके नामों का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। यहाँ उन्हीं जीवभेदों में बंध, उदय और सत्ता विधि का विचार किया है।
बंधविधि का विचार प्रारम्भ करते हुए आचार्य ने बताया है कि 'बंधति सत्त अट्ठ व' अर्था: अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त चौदह जीवभेद प्रति समय सात अथवा आठ कर्मों का बंध करते हैं। यह कथन सामान्य से समझना चाहिये । क्योंकि ग्रन्थकार आचार्य ने इसी गाथा में पर्याप्त सज्ञी जीवभेद का पृथक् से निर्देश किया है। अतः तात्पर्य यह हुआ कि पर्याप्त संज्ञी के सिवाय शेष अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियादि तेरह भेद वाले सभी जीव प्रति समय सात अथवा आठ कर्मों का बंध करते हैं। जिसका आशय यह है कि अपनी-अपनी आयु के दो भाग बीतने के बाद तीसरे, नौवें
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