Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६८
४४६ परिणाम जब होते हैं, तब ये देव एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियों का बंध करते हुए उपयुक्त चार प्रकृतियों का भी बन्ध करते हैं। क्योंकि ये चारों प्रकृतियां एकेन्द्रिययोग्य हैं।
सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नाम रूप सूक्ष्मत्रिक तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति रूप विकलत्रिक इन छह प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता बन्ध के अंत समय में उन मनुष्यों और तिर्यंचों के पाई जाती है जो पृथक्त्वपूर्वकोटि वर्षपर्यन्त बारंबार बन्ध द्वारा इन प्रकृतियों को पुष्ट करते हैं। क्योंकि सूक्ष्मत्रिक आदि छह प्रकृतियों का बन्ध मनुष्यों और तिर्यंचों के ही होता है। जिससे वे ही बारंबार बन्ध द्वारा इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंचय कर सकते हैं।
इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों को जानना चाहिये। अब जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामियों का निरूपण करते हैं। जघन्य प्रदेशसत्तास्वामित्व
ओहेण खवियकम्मे पएससंतं जहन्नयं होइ। नियसंकमस्स विरमे तस्सेव विसेसियं मुणसु ॥१६८॥
शब्दार्थ-ओहेण-सामान्य से, खवियकम्मे-क्षपितकर्माश के, पएससंतं-प्रदेशसत्ता, जहन्नयं-जधन्य, होइ-होती है, नियसंकमस्स-अपने-अपने संक्रम के, विरमे-अंत में, तस्सेव-उसके विषय में, विसेसियं-विशेष, मुणुसु-जानना चाहिये।
गाथार्थ-सामान्य से क्षपितकर्माश जीव के अपने-अपने संक्रम के अंत में जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। परन्तु कुछ प्रकृतियों के बारे में विशेष जानना चाहिये। विशेषार्थ-सामान्य से क्षपितकर्माश जीव को सभी कर्म प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता का स्वामी जानना चाहिए । क्योंकि अधिक-से
अधिक कर्मप्रदेशों का क्षय होने से क्षपितकर्मांश जीव के सब से कमJain Education International For Private & Personal Use Only
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