Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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परिशिष्ट ५ ५. पल्यापम, सागरोपम की स्वरूप व्याख्या
जैन कर्मसाहित्य में कर्मों की स्थितिमर्यादा प्रायः इतनी सुदीर्घ काल की बतलाई है कि जिसका वर्णन उपमाकाल के द्वारा किया जाना सम्भव है । इसके लिए पल्योपम और सागरोपम इन दो शब्दों का प्रयोग किया है।
जिस समयमर्यादा का पल्य की उपमा द्वारा और सागर की उपमा द्वारा निर्देश किया जाये, ऐसे दो भेदों को क्रमशः पल्योपम और सागरोपम काल कहते हैं । प्रकृत में इन दोनों के स्वरूप को जानना अभीष्ट होने से संक्षेप में इनका वर्णन करते हैं ।
गणनीय काल की आद्य इकाई समय है और अन्तिम सीमा शीर्ष-प्रहेलिका है । समय से लेकर शीर्ष-प्रहेलिका पर्यन्त काल का प्रमाण क्या है, इसका संकेत आगे किया जा रहा है । गणनीय काल की चरम सीमा के पश्चात् काल का जो कुछ भी वर्णन किया जाता है, वह सब उपमा काल में गभित है । इसका कारण यह है कि जैसे लोक में जो वस्तुयें सरलता से गिनी जा सकती हैं, उनकी तो गणना कर ली जाती है और उनके लिए संज्ञायें निश्चित हैं, लेकिन जो वस्तुयें जैसे तिल, सरसों, गेहूं आदि गिनी नहीं जा सकती हैं, उन्हें तोल या माप वगैरह से तोल-माप लेते हैं । ऐसी ही स्थिति समय की अवधि को जानने के लिए पल्योपम, सागरोपम की है कि समय की जो अवधि दिनरात्रि, पक्ष, मास, वर्ष आदि के रूप में गिनी जा सकती है, उसकी तो गणना कर ली जाती है, किन्तु जहाँ समय की अवधि इतनी लम्बी हो कि जिसकी गणना वर्षों में नहीं की जा सके तो उसको उपमाप्रमाण के द्वारा ही कहा जाता है।
उपमाप्रमाण के क्रम में पल्योपम पहला और सागरोपम दूसरा है। पल्योपम का स्वरूप ज्ञात हो जाने के अनन्तर सागरोपम का स्वरूप सुगमता से जाना जा सकता है । अतः अनुक्रम से इनका वर्णन करते हैं।
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