Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 598
________________ पचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ८ ४६ अर्थात् उसमें कम किया पल्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाने पर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है तथा एकेन्द्रिय के उत्कुष्ट स्थितिबंध को अनुक्रम से पच्चीस, पचास, सौ और एक हजार से गुणा करने पर जो लब्ध आये वह क्रमशः द्वीन्द्रियादि का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। उसमें पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून करने पर जो रहे वह द्वीन्द्रियादि की अपेक्षा जघन्य स्थिति है। वैक्रियषट्क की अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो लब्ध आये उसे हजार से गुणा कर पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो शेष रहे वह उसका जघन्य स्थितिबंध है और कम किया भाग मिलाने पर प्राप्त प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध है। हजार से गुणा करने का कारण यह है कि वैक्रियषट्क के बंधाधिकारी असंज्ञी पंचेन्द्रिय हैं और वे एकेन्द्रिय से हजार गुणा बंध करते हैं । यद्यपि असंज्ञी अपने उत्कृष्ट बंध से पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून स्वबंध योग्य प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध करते हैं तथापि वैक्रियषट्क के लिए प्रत्येक स्थान पर पल्योपम का असंख्यातबां भाग न्यून करने का संकेत किया है। वैक्रियषट्क की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति के लिये पंचसंग्रह और कर्मप्रकृति में मतभेद नहीं है। सार्धशतक में उत्कृष्ट से जघन्य पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून कहा है। अतएव कर्मप्रकृतिकार के मतानुसार पचासी प्रकृतियों की एकेन्द्रिय की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण यह हुआ दर्शनावरण और वेदनीय कर्म के वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर का भाग देने १ दिगम्बर कर्मसाहित्य का भी यही अभिमत है एयं पणकदि पण्णं सयं सहस्सं च मिच्छवर बंधो । इगिविगलाणं अवरं पल्लासंखूणसंखूणं ।। -गो. कर्मकाण्ड गाथा १४४ २ यहाँ सजातीय समुदाय अर्थ में वर्ग शब्द का प्रयोग किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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