Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 601
________________ ५२ पंचसंग्रह : ५ की जितनी जघन्य स्थिति है उसे ही पच्चीस आदि से गुणा करने पर जो आये उतनी द्वीन्द्रियादि की जघन्य स्थिति है । तत्त्व केवलीगम्य है।' जीवाभिगमसूत्र में इस विषय में यह लिखा है पंचसंग्रह के मत से यही जघन्य स्थिति का प्रमाण पल्योपम का असंख्यातवां भाग नहीं कहना चाहिए। क्योंकि उसके मत से -'शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो आये वह जघन्य स्थिति है । जघन्य स्थिति लाने का कारण वहाँ विद्यमान है। इस प्रकार विचार करने पर निद्रा अदि की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति को सत्तर कोडाकोडी से भाजित करने पर जो लब्ध आये वह जघन्य है और उतनी जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय बांधते हैं। उसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक करने पर उत्कृष्ट स्थिति होती है । एकेन्द्रिय की जघन्य और उत्कृष्ट को पच्चीस आदि से गुणा करने पर द्वीन्द्रियादि की अनुक्रम से जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है। इस प्रकार पंचसंग्रहकार का अभिप्राय ज्ञात होता है। जीवाभिगमसूत्र में जघन्य स्थिति का संकेत इस प्रकार किया है - निद्रा आदि की अपनी उत्कृष्ट स्थिति को सत्तर कोडाकोडी से भाग देने पर जो लब्ध हो उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून उनकी जघन्य स्थिति है और कम की गई को मिलाने पर जो प्राप्त हो उतनी उत्कृष्ट स्थिति है। प्रज्ञापनासूत्र के तेईसवें पद में उक्त प्रकार से जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति कही है। वहाँ वर्णादि की प्रत्येक प्रकृति की एवं वैक्रियषट्क में से प्रत्येक १ पंचसंग्रहे तु या जघन्य स्थितिरेकेन्द्रियाणां सा पल्योपमासंख्येयभागाभ्यधि कीकृता पंचविंशत्यादिना च गुणिता द्वीन्द्रियादिनामुत्कृष्टा, यथास्थितैव चैकेन्द्रिय जघन्यस्थितिः पंचविंशत्यादिना गुणिता द्वीन्द्रियादीनां जघन्येत्युक्तमस्ति तत्त्वं तु केवलिनो विदन्ति । -कर्मप्रकृति यशोविजय टीका पृ. ७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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