Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
प्रज्ञापना और जीवाभिगम सूत्र के अभिप्रायानुसार बाईस प्रकृतियों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने पर जो आये उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो शेष रहे उतनी एकेन्द्रिय जघन्य स्थिति बांधते हैं और उत्कृष्ट से परिपूर्ण वह स्थिति बांधते हैं तथा एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति को पच्चीस आदि से गुणा करने पर प्राप्त प्रमाण द्वीन्द्रियादि उत्कृत्ट स्थिति बांधते हैं और पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून जघन्य स्थिति बांधते हैं ।
आयुचतुष्क, आहारकद्विक और तीर्थकरनाम की जघन्य, उत्कृष्ट स्थितिबंध के विषय में कुछ भी मतभेद नहीं है।
वैक्रियषट्क की स्थिति के बारे में पंचसंग्रह और कर्मप्रकृति में मतभेद नहीं है । परन्तु प्रज्ञापनासूत्र में देव द्विक की १/७ भाग स्थिति को हजार से गुणा कर पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून जघन्य स्थिति बताई है ।
इस प्रकार से एकेन्द्रियादि की अपेक्षा जघन्य, उत्कृष्ट स्थितिबंध विषयक दृष्टिकोण हैं।
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