Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ८
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प्रकृति की भी अपनी जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसे सत्तर कोडाकोडी से भाग देने का संकेत किया है। जिससे पहले जो वर्णादि प्रत्येक की २/७ भाग पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून जघन्य स्थिति कही है, वह न आकर १/७ भाग आदि आयेगी। देवगति की भी १/७ भाग को हजार से गुणा करके पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर जो शेष रहे वह जघन्य स्थिति होगी तथा एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति को पच्चीस, पचास, सौ और हजार गुणी करने पर जो आयेगी उतनी द्वीन्द्रियादि की उत्कृष्ट स्थिति है और उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो रहे वह जघन्य स्थिति है ।
कर्मग्रन्थ में द्वीन्द्रियादि की उत्कृष्ट स्थिति से जघन्य स्थिति पल्योपम के संख्यातवें भाग न्यून बताई है, जबकि यहाँ (पंचसंग्रह में) असंख्यातवें भाग न्यून कहा है।
इस प्रकार स्थितिबंध के विषय में तीन मत हैं।
निद्रा आदि पचासी प्रकृतियों की एकेन्द्रियादि की अपेक्षा तो जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध सम्बन्धी उक्त मंतव्य है तथा इनसे शेष रही प्रकृतियों के लिए यह समझना चाहिए कि आयुचतुष्क, वैक्रियषट्क, आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम के सिवाय शेष बाईस प्रकृतियों की अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में सत्तर कोडाकोडी का भाग देकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून करने पर प्राप्त लब्ध प्रमाण जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय बांधते हैं और परिपूर्ण वह स्थिति उत्कृष्ट से बांधते हैं । एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति को पच्चीस आदि से गुणा कर पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून करने पर जो रहे उतनी हीन्द्रियादि जघन्य स्थिति बांधते हैं और उत्कृष्ट से परिपूर्ण वह स्थिति बांधते हैं । यह कर्मप्रकृतिकार के मतानुसार समझना चाहिए ।
उक्त समग्र कथन का सारांश यह है
पंचसंग्रह के मतानुसार प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने पर जो आये वह एकेन्द्रियों की जघन्य और पल्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाने पर प्राप्त प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को पच्चीस आदि से गुणा करने पर प्राप्त प्रमाण अनुक्रम से द्वीन्द्रियादि की जघन्य और उत्कृष्ठ स्त्रिी होती है ।
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