Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 587
________________ पंचसंग्रह : ५ पल्य में भर दो। उसे अद्धा पल्य कहते हैं। उसमें से प्रतिसमय एक-एक रोम खंड निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो, उसे अद्धा पल्योपम काल कहते हैं। दस कोटाकोटि अद्धा पल्योपम का एक अद्धा सागर होता है। दस कोटि अद्धा सागरोपम की एक उत्सर्पिणी और उतने ही काल की एक अवसर्पिणी होती है। इस अद्धा पल्य, सागर से नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की कर्मस्थिति, भवस्थिति और कायस्थिति का प्रमाण जाना जाता है।' उपमाकाल के विषय में जैन साहित्य का उक्त प्रकार का मंतव्य है । इस काल की प्रवृत्ति गणनीय काल के अनन्तर होती है। अतएव संक्षेप में अब गणनीय काल की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। गणनीय काल-भविष्य की अपेक्षा काल अनन्त है और भूत की अपेक्षा अनादि । अतएव इस अनादि-अनन्त काल का प्रारम्भ कब हुआ, कहना सम्भव नहीं है। किन्तु वर्तमान की अपेक्षा जिस बिन्दु से हम अपनी गणना का प्रारम्भ माने, उसको आदि मान सकते हैं और इसी आधार से लोकव्यवहार में जो दिन, रात्रि, घड़ी, घंटा आदि का कथन किया जाता है, वह लोकसत्य की दृष्टि से होता है । इन सबका समावेश गणनीय काल में होता है । इस गणना योग्य काल का विचार भगवतीसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र, ज्योतिष्करण्डक आदि शास्त्रों और ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। जिनका संक्षिप्त इस प्रकार है---- काल के सूक्ष्मतम भाग को 'समय' कहते हैं। वह कालगणना की आद्यइकाई है । ऐसे असंख्यात समयों के समुदाय को आवलिका कहते हैं । संख्यात आवलिका का एक उच्छ्वास-निश्वास होता है। एक निरोग, स्वस्थ, वृद्धावस्था एवं व्याधि रहित, निश्चिन्त तरुण पुरुष के एक बार श्वास लेने और त्यागने में जितना समय लगता है, उसे एक उच्छ्वास-निश्वास काल या श्वासोच्छ्वास १ सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, त्रिलोकसार गाथा ६३-१०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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