Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 591
________________ परिशिष्ट ६ ६ अपवर्तनीय अनपवर्तनीय आयु विषयक दृष्टिकोण आयुकर्म के पुद्गल द्रव्यायु और देवगति आदि उस उस गति में स्थिति कालायु वाच्य है। कालायु के अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय यह दो भेद हैं । विष, शस्त्र आदि बाह्य निमित्तों और रागादि आन्तरिक निमित्तों से जो आयु घटे, उसे अपवर्तनीय आयु तथा वैसे निमित्तों के प्राप्त होने पर भी जो आयु कम न हो, बद्ध समयप्रमाण जिसका भोग किया जाये, प्राप्त भव आदि की निर्धारित आयु पर्यन्त जीवित रहना पड़े, उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। इन दोनों प्रकार की स्थितियां होने का कारण है आयुबंध की शिथिलता अथवा निगड़ता। यदि आयुबंध काल में शिथिलबंध किया हो तो उसका अपवर्तन होता है किन्तु सुदृढ़ बंध होने पर अपवर्तन नहीं होता है। ___अपवर्तनीय आयु तो सोपक्रम ही होती है। उपक्रम अर्थात् आयु घटने के निमित्त और उन सहित आयु को सोपक्रम आयु कहते हैं । जब भी अपवर्तनीय आयु होती है तब उसे विष, शस्त्रादि निमित्त अवश्य ही प्राप्त होते हैं । ___अनपवर्तनीय आयु निरुपक्रम तो है ही किन्तु सोपक्रम भी है। जिससे अनपवर्तनीय आयु के सोपक्रम और निरुपक्रम ये दो भेद हैं । यहाँ सोपक्रम का अर्थ होगा कि विष-शस्त्रादि निमित्तों के मिलने पर भी जो आयु घटे नहीं, किन्तु आयु पूर्ण हो गई हो तो उन निमित्तों से मरण हुआ ज्ञात हो । ऐसी आयु सोपक्रम अनपवर्तनीय आयु है और मरण के समय आयु घटने के विष, शस्त्रादि निमित्त प्राप्त ही न हों, वह निरुपक्रम आयु कहलाती है । प्रश्न-- यदि आयु का अपवर्तन होता है तो फल दिये बिना उस आयु के क्षय होने से कृतनाश का तथा आयुकर्म शेष रहते भी मरण हो जाने से अकृत-अनिमित्त मरण का अभ्यागम-प्राप्ति होने से अकृताभ्यागम दोष प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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