Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७१,
४५५
इस प्रकार से जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामित्व का निर्देश करने के साथ प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व का विचार पूर्ण होता है । अब प्रदेशसत्कर्मस्थानों की प्ररूपणा करने के लिए स्पर्धक की प्ररूपणा करते हैं । स्पर्धक प्ररूपणा
चरमावलिष्पविट्ठा गुणसेढी जासि अत्थि न य उदओ । आवलिगा समयसमा तासि खलु फड्डगाई तु ॥ १७१ ॥
शब्दार्थ - चरमावलिप्पविट्ठा -- अन्तिम आवलिका में प्रविष्ट, गुणसेढीगुणश्रेणि, जासि - जिन ( कर्म प्रकृतियों की), अस्थि - है, न - - नहीं, य-किन्तु, उदयो - उदय, आवलिगा - आवलिका के, समयसमा - तासि - उनके, खलु - अवश्य, फड्डगाई - स्पर्धक, तु
- समय प्रमाण,
--
ही ।
गाथार्थ - जिन कर्म प्रकृतियों की गुणश्रेणि अन्तिम आवलिका में प्रविष्ट हो गई है, किन्तु उदय होता नहीं है उन प्रकृ तियों के आवलिका के समयप्रमाण स्पर्धक होते हैं ।
विशेषार्थ - अन्तिम आवलिका में प्रविष्ट गुणश्रेणि वाली प्रकृतियों के स्पर्धकों के प्रमाण को गाथा में स्पष्ट किया है
क्षयकाल में जिन कर्मप्रकृतियों की गुणश्रेणि चरमावलिका में प्रविष्ट हो चुकी है किन्तु उदय होता नहीं है, ऐसी स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्वमोहनीय, अनन्तानुबंधिचतुष्क आदि बारह कषाय, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रियजाति के सिवाय शेष जातिचतुष्क, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण रूप उनतीस प्रकृतियों के आवलिका में जितने समय हों, उतने उनके स्पर्धक होते हैं । अर्था इन प्रकृतियों के आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं । विशेषता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
अभव्यप्रायोग्य जघन्य प्रदेशसत्ता वाला कोई जीव त्रसों में उत्पन्न हुआ और वहाँ अनेक बार सर्वविरति और देशविरति को प्राप्त करके
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