Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७२, १७३ यह पहला स्पर्धक अंतिम समय प्रमाण स्थिति की अपेक्षा से कहा है। इसी प्रकार से दो समय प्रमाण स्थिति का दूसरा, तीन समय प्रमाण स्थिति का तीसरा स्पर्धक जानना चाहिए। इस प्रकार से समयन्यून आवलिका के समयप्रमाण स्पर्धक होने तक कहना चाहिए। इस प्रकार से चरमावलिका के स्पर्धक हुए तथा चरमस्थितिघात का परप्रकृति में जो अंतिमप्रक्षेप हो, वहाँ से प्रारम्भ कर पश्चानुपूर्वी के क्रम से वृद्धि करते हुए प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिए यावत् अपनाअपना उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान हो। इतने प्रमाण वाला अनंत सत्कर्मस्थानों का समूह रूप यह भी सम्पूर्ण स्थिति सम्बन्धी यथासंभव एक स्पर्धक ही विवक्षित किया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि चरम स्थिति के अंतिम प्रक्षेप से आरम्भ कर अनुक्रम से बढ़ते हुए सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो अनंत प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं, उनके समूह को एक ही स्पर्धक माना है। पूर्वोक्त स्पर्धकों में इस एक स्पर्धक को मिलाने पर स्त्यानद्धित्रिक आदि अनुदयवती प्रकृतियों के कुल आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं।
ये स्थान स्पर्धकरूप होते हैं। अतः अब स्पर्धक का लक्षण बतलाते हैं। स्पर्धक का लक्षण
सव्वजहन्नपएसे पएसवुड्ढीए णतया भेया । ठिइठाणे ठिइठाणे विन्नेया खवियकम्माओ ॥१७२॥ एगट्ठिइयं एगाए फड्डगं दोसु होइ दोट्टिइगं । तिगमाईसुवि एवं नेयं जावंति जासिं तु ॥१७३॥
शब्दार्थ-सव्वजहन्नपएसे-सर्व जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान से, पएसवुड्ढीए-एक-एक प्रदेश की वृद्धि से, गंतया भेया-अनन्त भेद, ठिइठाणे ठिइठाणे-स्थितिस्थान स्थितिस्थान में अर्थात् प्रत्येक स्थितिस्थान में, विन्नेया-जानना चाहिए, खवियकम्माओ-क्षपितकर्मांश जीव की अपेक्षा ।
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