Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट २
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अथवा १५८ प्रकृतियों का जो उल्लेख किया जाता है, उनमें से सिर्फ एक सौ बाईस प्रकृतियां ही उदय और उदीरणा योग्य हैं, शेष नहीं । लेकिन यह समझना चाहिए कि जैसे बंधयोग्य १२० प्रकृतियों की संख्या बतलाने के प्रसंग में शरीरनामकर्म के भेदों के साथ उन-उनके बंधन एवं संघातन नामकर्म के पांच-पांच भेद गर्भित कर लिये जाते हैं, उसी प्रकार उदय, उदीरणा में भी उनका शरीरनामकर्म के भेदों में समावेश किया गया है । क्योंकि शरीरनामों के साथ उन उनके बंधन और संघातन ये दोनों अविनाभावी हैं । इस कारण ये दस प्रकृतियां अभेद-विवक्षा से शरीरनामकर्म से अलग नहीं गिनी जाती हैं, शरीरनामकर्म की प्रकृतियों में गर्भित मानी जाती हैं तथा बंध की तरह ही वर्णचतुष्क में इनके उत्तर बीस भेदों के शामिल हो जाने से उदयअवस्था में अभेद से चार भेद ग्रहण किये जाते हैं । इस प्रकार से अभी तक तो बंधयोग्य और उदययोग्य प्रकृतियों की एकरूपता होने से संख्या १२० ही होती है । लेकिन बंधयोग्य में मोहनीयकर्म की अट्ठाईस में से छब्बीस प्रकृतियों का ग्रहण होता है लेकिन उदय में सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व, मोहनीयकर्म के इन दो भेदों को मिलाने से १२२ प्रकृतियां अभेद-विवक्षा से उदययोग्य हैं । किन्तु भेद-विवक्षा से १४८ प्रकृतियां उदययोग्य हैं । इतनी ही प्रकृतियां अभेद एवं भेद-विवक्षा से उदीरणायोग्य समझना चाहिए ।
गुणस्थानों और मार्गणास्थानों की अपेक्षा जहाँ जितनी प्रकृतियों का उदय है वहाँ उतनी प्रकृतियों की उदीरणा भी होती है ।
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