Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
स्थान पर्यन्त चरम समय में बंधे हुए दलिक का जिस रीति से और जितने प्रदेशसत्कर्मस्थानों का विचार किया गया है, उसी रीति से आगे उतने प्रदेशसत्कर्मस्थान यहाँ भी जानना चाहिये । परन्तु यह समझना चाहिये कि मात्र दो स्थितिस्थान के हुए हैं । इसका कारण यह है कि बंधविच्छेद रूप चरम समय में बंधे हुए दलिक की भी उस समय सत्ता है । इस प्रकार असंख्य सत्कर्मस्थानों के समूह का दूसरा स्पर्धक होता है ।
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असत्कल्पना से चार समय प्रमाण आवलिका मानने पर बंधविच्छेद होने के बाद के समय में अर्था अबंध के पहले समय में छह समय के बंधे हुए दलिक की सत्ता होती है । अबंध के दूसरे समय में पांच समय के बंधे हुए, अबंध के तीसरे समय में चार समय के बंधे हुए, अबंध के चौथे समय में तीन समय के बंधे हुए, अबंध के पांचवें समय में दो समय के बंधे हुए और अबंध के छठे समय में मात्र बंधविच्छेद के समय में बंधे हुए दलिक की ही सत्ता होती है । इस प्रकार होने से तीन समय स्थिति का उपर्युक्त रीति से तीसरा स्पर्धक, चार समय स्थिति का चौथा स्पर्धक, पांच समय स्थिति का पांचवां स्पर्धक और छह समय स्थिति का छठा स्पर्धक होता है । अब इसी कल्पना को यथार्थ रूप में स्पष्ट करते हैं
बंधादि विच्छेद के त्रिचरम समय में अर्थात् चरम समय से तीसरे समय में जघन्य योगादि के द्वारा जो दलिक बंधता है, उसके उस बंधसमय से लेकर दूसरी आवलिका के चरम समय में पूर्व की तरह उतने ही प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं, मात्र वे तीन स्थिति के होते हैं । क्योंकि उस समय बंधादि के विच्छेद के समय में बंधे हुए तीन समय की स्थिति वाले दलिक की सत्ता होती है एवं द्विचरम समय में बंधे दो समय की स्थिति वाले दलिक की भी सत्ता होती है । इस तरह असंख्य प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह का तीसरा स्पर्धक होता है ।
हुए
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