Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 559
________________ पंचसंग्रह ( ५ ) अद्धा जोगुक्को से बंधित्ता भोगभूमिगेसु लहुं । सवप्पजीवियं वज्जइतु ओट्टिया नारयत्रियदुगदुभगाइनीयमणुयाण पुव्विगाणं दंसण खगो तइयगढी उ संघ गुणसे ए श्रृंगस्स उ बिइयादितिगुण से ढिसीसम्म | आह याणं अपमत्तो आइगुणसीसे ।। ११ ।। भग्गो पत्तो वेइंदिपुढविकायत्तं । आयावस्स उ तव्वेइ पढमसमयमि वट्टंतो ॥ ११६ ॥ देवो जहन्नयाऊ दीहुव्वट्टित्तु चउनाणदंसणतिगे मिच्छअन्तम्मि | एगिंदिगए जहन्नुदयं ॥ १२० ॥ कुव्वइ ओहिदुगस्स उ देवत्त संजमाउ संपत्तो । मिच्छुतको सुक्कट्टिय आवलिगंते पसुदयं ।। १२१ ।। वेयणिय उच्चसोयंतराय अरईण होइ निद्दादुगस्स उदओ उक्कोसठिईउ मइसरिसं वरिसवरं तिरिगई थावरं इंदियपज्जत्तीए पढमे समयंमि अपुमित्थि सोगपढमिल्लअरइरहियाण अंतरकरणाउ गए सुरेसु उवसंतो कालगओ सब्वट्ठे जाइ तत्थ न एयाणुदओ असुभुदए होइ उवसामइत्त, चउहा अंतमुहू बंधिऊण पालिय सम्म पढमाण आवलिअंतं इत्थीए संजमभवे सव्वनिरुद्धमि गंतु देवी लहु जिट्ठठिई उच्चट्टिय अप्पद्धाजोगसमज्जियाण उर्वार थोवनिसेगे आऊण चिर For Private & Personal Use Only Jain Education International दोहं ॥ ११६॥ तु 1 पडिभग्गो ।। ११७॥ ओहिसमो । पडियस्स ॥ १२२ ॥ च नीयं च । गिद्धतिगे ।। १२३ ।। मोहगईणं । उदावलीअंते || १२४।। भगवई सिद्धं । मिच्छस्स ॥ १२५ ॥ बहुकालं । मिच्छगए || १२६ । । मिच्छंतो । आवलीअंते || १२७॥ जिट्ठठिइअंते । तिब्वासायवेईणं ॥ १२८॥ www.jainelibrary.org

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