Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८०
दयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों के तुल्य जानना चाहिये । विशदता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
उद्वलनयोग्य तेईस प्रकृतियों की पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाणकाल द्वारा उद्बलना करने पर उनके स्पर्धक अनुदयवती प्रकृतियों के तुल्य जानना चाहिये । अर्थात् पहले जो अनुदयवती प्रकृतियों के आवलिका के समयप्रमाण स्पर्धक बताये हैं, उसी प्रकार उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के भी समझना चाहिये ।
अब उक्त कथन को नामोल्लेखपूर्वक पृथक्-पृथक् उद्वलनयोग्य प्रकृति पर घटित करते हैं । उसमें भी पहले सम्यक्त्वमोहनीय के स्पर्धकों को बतलाते हैं
अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थिति की सत्ता वाला कोई जीव त्रस में उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्व तथा देशविरति - देशचारित्र को अनेक बार प्राप्त करके एवं चार बार मोहनीय का सर्वोपशम करके तथा एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन करके मिथ्यात्व में जाये और वहाँ चिरोलना के द्वारा पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल से सम्यक्त्वमोहनीय की उवलना करने पर जब अन्तिम स्थितिखंड संक्रांत हो जाये और एक आवलिका शेष रहे तब उसे भी स्तिबुकसंक्रम के द्वारा मिथ्यात्वमोहनीय में संक्रांत करते दो समयमात्र जिसका अवस्थान है, ऐसी एक स्थिति शेष रहे तब कम से कम जो प्रदेशसत्ता होती है वह सम्यक्त्वमोहनीय का जघन्य प्रदेश - सत्कर्मस्थान कहलाता है ।
वहाँ से प्रारम्भ कर अनेक जीवों की अपेक्षा एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् उसी चरम स्थितिस्थान में गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मस्थान हो जाये । इन अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थानों का पहला एक स्पर्धक होता है । स्वरूपसत्ता से दो समयस्थिति शेष रहे तब पूर्वोक्त क्रम मे दूसरा स्पर्धक होता है । इस प्रकार वहाँ तक कहना
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