Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंध विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७७, १७८
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अनुदयवइए -- अनुदयवती प्रकृतियों का, तम्मी - उसमें, घरिमं चरम का, चरिमंमि - चरम समय में, जं कमइ — जो संक्रांत होता है ।
गाथार्थ - क्षीणमोह और सयोगिकेवलीगुणस्थान के अंत में प्राप्त होने वाले स्थितिखंडों के सबसे छोटे अंश, उससे आरम्भ कर अपनी-अपनी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो प्रदेशसत्कर्मस्थानों का चरम स्पर्धक होता है, वह उदयवती प्रकृतियों का अधिक होता है तथा अनुदयवती प्रकृतियों का चरम समयवर्ती दलिक उदयवती प्रकृतियों में संक्रांत हो जाने से उस चरम समय सम्बन्धी एक स्पर्धक से न्यून होता है ।
जिस समय उदयवती प्रकृतियों के द्विचरम स्थितिस्थान का क्षय होता है, उस समय अनुदयवती प्रकृतियों के चरमस्थान का क्षय होता है । क्योंकि चरम समय में अनुदयवती प्रकृतियों के दलिक उसमें संक्रांत हो जाते हैं ।
विशेषार्थ -- इन दो गाथाओं में क्षीणमोह और अयोगिकेवलीगुणस्थान में उदयवती प्रकृतियों का एक अधिक स्पर्धक और अनुदयवती प्रकृतियों का उदयवती प्रकृतियों से एक न्यून स्पर्धक होने के कारण को स्पष्ट किया है । इन दोनों में से पहले उदयवती प्रकृतियों का एक स्पर्धक अधिक होने के कारण को स्पष्ट करते हैं
ज्ञानावरणपं चक आदि प्रकृतियों का क्षीणकषायगुणस्थान में और अयोगिकेवली के जिन प्रकृतियों की सत्ता है, उन प्रकृतियों के सयोगिकेवलीगुणस्थान में स्थितिघात आदि करते-करते अंतिम स्थितिखंड को उत्कीर्ण करने पर उस खंड के दलिकों का अन्य प्रकृतियों में जो प्रक्षेप होता है, उसमें अंतिम स्थितिघात के चरम समय में अतिशय क्षुल्लक छोटा जो चरम प्रक्षेप होता है, वहाँ से आरम्भ कर पश्चानुपूर्वी के क्रम से बढ़ने पर अपनी-अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो प्रदेश सत्कर्मस्थान होते हैं, उन प्रदेश सत्कर्मस्थानों का समूह रूप सम्पूर्ण स्थिति का जो एक स्पर्धक होता है, वह एक स्पर्धक क्षीणकष- नय
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