Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
इस प्रकार से स्पर्धकों का लक्षण जानना चाहिये । अब पहले जो यह कहा था कि आवलिका के समय प्रमाण उन प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं तो वे किन प्रकृतियों के होते हैं ? नामनिर्देश पूर्वक उन-उन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्पर्धक बतलाते हैं। प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्पर्धक-निरूपण
आवलिमेत्तु क्कोसं फड्डग मोहस्स सव्वघाईणं । तेरसनामतिनिदाणं जाव नो आवली गलइ ।।१७४॥
शब्दार्थ-आवलिमेत्तु कोसं-आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट, फड्डगस्पर्धक, मोहस्स-मोहनीय की, सव्वघाईणं-सर्वघातिनी प्रकृतियों की, तेरसनाम-नामकर्म की तेरह प्रकृतियों की, तिनिहाणं-तीन निद्राओं की, जाव-यावत्, जब तक, नो-नहीं, आवली-आवलिका, गलइ-क्षय होती है।
गाथार्थ- मोहनीय की सर्वघातिनी प्रकृतियों की, नामकर्म की तेरह प्रकृतियों की और तीन निद्राओं की जब तक चरमावलिका क्षय नहीं होती है तब तक उनके समयन्यून आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक होते हैं। विशेषार्थ- गाथा में मोहनीय की सर्वघातिनी, नामकर्म की तेरह प्रकृति एवं निद्रात्रिक के स्पर्धकों का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ मोहनीयकर्म की मिथ्यात्व और आदि की बारह कषाय ये तेरह सर्वघातिनी तथा नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जातिचतुष्क, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण नामकर्म की ये तेरह एवं तिनिहाणं'स्त्याद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला रूप निद्रात्रिक, इस तरह कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतियों की सत्ता में विद्यमान अन्तिम आवलिका जब तक अन्य प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित होने से क्षय न हो जाये
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