Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार · गाथा ८१
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तियों का भाग प्राप्त हुए बिना, परत:- अन्य प्रकृतियों का भाग प्राप्त होने से और उभयतः-दोनों प्रकारों से उत्कृष्ट प्रदेशबंध सम्भव है, उसका विचार करते हैं। स्वतः परतः उभयतः संभव उत्कृष्ट प्रदेशबंध
नाणंतराइयाणं परभागा आउगस्स नियगाओ। परमो पएसबंधो सेसाणं उभयओ होइ॥१॥
शब्दार्थ-नाणंतराइयाणं-ज्ञानावरण और अन्त राय कर्म का, परभागापरभाग से, आउगस्स-आयुकर्म का, नियगाओ-स्वतः, परमो-उत्कृष्ट, पएसबंधो-प्रदेशबंध, सेसाण- शेष कर्मों का, उभयओ-उभयतः, होइहोता है।
गाथार्थ-ज्ञानावरण और अन्तराय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध परतः-अन्यकर्म का भाग प्राप्त होने से, आयकर्म का स्वत:अपने भाग से ही और अवशिष्ट प्रकृतियों का उभयतः उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है।
विशेषार्थ-ग्रन्थकार आचार्य ने यहाँ उन-उन कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध होने की सामग्री का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
'नाणंतराइयाणं पर भागा' अर्थात् ज्ञानावरण और अन्तराय इन दो कर्मों की प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध परत:- अन्य प्रकृतियों के भाग का प्रवेश होने से होता है । इसका कारण यह है कि आयु और मोहनीय कर्म का बंधविच्छेद होता है तब उस-उस समय बंधी हुई कार्मणवर्गणाओं का मोहनीय और आयु रूप में परिणमन नहीं होता है। जिससे जितने कर्मों का बंध होता है उतने ही कर्म रूप में उनका परिणमन होता है। इसलिये इन दोनों कर्मों के भाग का प्रवेश होने से ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होना बताया है, किन्तु स्वजातीय किसी भी उत्तर प्रकृति के भाग का
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