Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
'पडीठिइमाईया भेया' अर्थात् जिस तरह से पहले बंधविधि के विचार प्रसंग में प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध इस तरह चार भेद बताये हैं वे सभी यहाँ उदयाधिकार में भी जानना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि बंध के स्थान पर उदय शब्द का प्रयोग किया जाये । यथा - प्रकृत्युदय, स्थित्युदय, अनुभागोदय और प्रदेशोदय ।
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अब गाथा के उत्तरार्ध का आशय स्पष्ट करते हैं ।
उदयविधि का यहाँ वर्णन करते हैं तथा उदीरणा का स्वरूप उदीरणाकरण में विस्तार से कहा जायेगा और उदीरणा के स्वरूप को आगे कहने का कारण यह है कि उदय और उदीरणा सहचारी होने से इन दोनों के स्वामित्व के विषय में प्रायः कोई भेद नहीं है । क्योंकि जिन प्रकृतियों का जहाँ तक उदय होता है वहीं तक उनकी उदीरणा होती है । इसी प्रकार जिन प्रकृतियों की जहाँ तक उदीरणा होती है, वहाँ तक उनका उदय भी होता है । ऐसी स्थिति में जिस प्रकार से प्रकृति आदि भेद और स्वामित्व आदि का विचार उदीरणाधिकार में किया जायेगा, वह सब यहाँ भी उसी तरह जान लेना चाहिए। अतः मात्र उदय और उदीरणा के प्रकृति आदि भेद के विषय में जो भिन्नता है, उसका यहाँ विचार किया जायेगा और शेष सब वर्णन उदीरणा की तरह समझ लेना चाहिए ।
इस प्रकार से उदय और उदीरणा में सामान्य से यथासंभव समानता और भिन्नता का संकेत करने के बाद अब उदय और उदीरणा में प्रकृतिभेद के विषय में भिन्नता बताने के लिये जिन प्रकृतियों का उदीरणा के सिवाय भी कुछ काल उदय होता है, उसको बतलाते हैं ।
विशेष उदयवती प्रकृतियां
चरिमोदयमुच्चाणं अजोगिकालं उदीरणाविरहे ।
देसूryaकोडी
मणुयाउ य सायसायाणं ॥ ६६ ॥
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