Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
नामकर्म का बंध करके ऊपर के गुणस्थानों में चढ़े या गिरकर नीचे के गुणस्थानों में आये तो सभी गुणस्थानों में सत्ता सम्भव है, किन्तु बंध नहीं करने वाले के सम्भव नहीं है। ___'सासणमीसेयराण पुण तित्थं' सासादन और मिश्र गुणस्थान के सिवाय शेष गुणस्थानवी जीवों के तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता भजना से होती है। जिसने तीर्थंकरनामकर्म का बंध किया हो, उसके होती है और यदि न किया हो तो नहीं होती है। परन्तु सासादन और मिश्रदृष्टि के तो नियम से (निश्चित रूप से) होती ही नहीं है। इसका कारण यह है कि तथास्वभाव से ही तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता वाला जीव दूसरे और तीसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । तथा___ 'उभये सन्ति न मिच्छे' अर्था । आहारकनामकर्म और तीर्थंकरनामकर्म इन दोनों की युगपत् यदि सत्ता हो तो जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होता है । अर्थात् दोनों की सत्ता वाला जीव मिथ्यात्वगुणस्थान में नहीं जाता है किन्तु यदि मात्र तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता हो तो वह मिथ्यादृष्टि अन्तर्मुहूर्त ही होता है, इससे अधिक काल नहीं । कारण सहित जिसका विशेप विचार सप्ततिकासंग्रह में किया जा रहा, अतः यहाँ नहीं किया है । तथा
अन्नयरवेयणीयं उच्चं नामस्स चरमउदयाओ। मणुयाउ अजोगंता सेसा उ दुचरिमसमयंता ॥१४२॥
शब्दार्थ-अत्रयरवेयणीयं-अन्यतर कोई एक वेदनीय की, उच्चउच्चगोत्र, नामस्स-नामकर्म की, चरमउदयाओ-चरमोदया, मणुयाऊमनुष्यायु, अजोगता-अयोगि के चरम समय पर्यन्त, सेसा-शेष, उ-और, दुचरिमसमयंता--द्विचरमसमय पर्यन्त ।
गाथार्थ- अन्यतर वेदनीय, उच्चगोत्र, नामकर्म की चरमोदया प्रकृतियों और मनुष्यायू की अयोगि के चरम समय पर्यन्त और शेष की द्विचरम समय पर्यन्त सत्ता होती है।
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