Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५७
४३७
गाथार्थ - मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय को प्रक्षिप्त करने
-
के द्वारा क्रमशः मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय की तथा ईशान स्वर्गगत देव के नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । विशेषार्थ - गाथा में मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय और नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों को बतलाया है
पूर्वोक्त गुणितकर्मांश कोई जीव सातवीं नरकपृथ्वी से निकलकर तिर्यंच में उत्पन्न हो और वहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहकर संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य में उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त कर दर्शनमोहक और अनन्तानुबन्धिचतुष्क इन सात प्रकृतियों का क्षय करने वाला वह जीव अनिवृत्तिकरण के जिस समय में सर्वसंक्रम द्वारा मिथ्यात्वमोहनीय को मिश्रमोहनीय में संक्रांत करे उस समय मिश्रमोहनीय की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है और उसी मिश्रमोहनीय को सर्वसंक्रम द्वारा सम्यक्त्वमोहनीय में संक्रमित करते समय सम्यक्त्वमोहनीय की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता प्राप्त होती है ।" तथा
वही गुणितक कोई नारक तिर्यंच होकर ईशान देवलोक में देव हो और वहाँ अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाला होकर बारम्बार नपुंसक वेद का बन्ध करे तो उस नपुंसकवेद की अपने भव के अन्त समय में वर्तमान उस ईशान देव के उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । 2
तथा-
१ सातवीं नरकपृथ्वी का नारक मनुष्य में उत्पन्न नहीं होता है और मनुष्य में उत्पन्न हुए बिना क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता । इसीलिए तिर्यंच में जाकर संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य में उत्पन्न होना कहा है ।
२
इसका कारण यह है कि ईशान देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागरोपम प्रमाण है तथा अति संविलष्ट परिणाम होने पर वे एकेन्द्रिययोग्य कर्मबन्ध करते हैं और उनका बंध करते हुये नपुंसकवेद बांधते हैं । जिससे ईशान देव को नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी बताया है ।
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