Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४६
४२५ इस प्रकार से स्थितिस्थानों के भेदों का विवेचन करने के साथ स्थितिसत्कर्म का विचार समाप्त होता है। अब अनुभागसत्ता का विचार प्रारम्भ करते हैं।
अनुभागसत्कर्म अनुभागसत्ता प्रायः अनुभागसंक्रम के समान है। अतः पुनरावृत्ति न करके अनुभागसंक्रम से अनुभागसत्ता में जो विशेषता और भिन्नता है उसी को यहाँ स्पष्ट करते हैं। अनुभागसत्ता विषयक विशेषता
संकमतुल्लं अणु भागसंतयं नवरि देसघाईणं । हासाईरहियाणं जहन्नयं एगठाणं तु ॥१४६॥
शब्दार्थ-संकमतुल्लं-अनुभागसंक्रभ के तुल्य, अणुभागसंतयं-अनुभागसत्कर्म (सत्ता), नवरि-किन्तु, देसघाइणं-देशघाति प्रकृतियों का, हासाईरहियाणां हास्यादि प्रकृतियों से रहित, जहन्नयं-जघन्य, एगठाणंएक स्थान, तु-ही।
गाथार्थ-अनुभागसंक्रम के तुल्य अनुभागसत्कर्म (सत्ता) जानना चाहिये । किन्तु हास्यादि प्रकृतियों से रहित शेष देशघाति प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग एक स्थान होता है। विशेषार्थ-अनुभागसंक्रम से अनुभागसत्कर्म (सत्ता) में प्राप्त होने वाली विशेषताओं को गाथा में बतलाया है___'संकमतुल्लं' अर्थात् आगे संक्रमकरण में जिसका स्वरूप वतलाया जायेगा उस अनुभागसंक्रम के समान ही अनुभागसत्ता को भी समझना चाहिए। यानि अनुभागसंक्रम के प्रसंग में जिस प्रकार से एकस्थानक आदि स्थान, घातित्व, अघातित्व, सादि आदि भंग और जघन्य उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामियों का विवेचन किया जाएगा, तदनुरूप यहाँ 'अनुभागसंतयं'-अनुभाग की सत्ता के विषय में भी स्थान, घाति-अघातित्व आदि को समझ लेना चाहिए।
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