Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क, संज्वलन लोभ और यशःकीर्तिनाम इन छह प्रकृतियों के सिवाय शेष एक सौ चौबीस ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों को अजघन्य प्रदेशसत्ता अनादि, ध्र व और अध्र व रूप तीन प्रकार की है। जो इस प्रकार जानना चाहिये-- __ इन प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता अपने-अपने क्षय के चरम समय में क्षपितकर्माश जीव के होती है। वह एक समय मात्र होने से सादि है। उसके सिवाय अन्य समस्त प्रदेशसत्ता अजघन्य है और वह अनादि है। क्योंकि उसका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है । अभव्य की अपेक्षा वह ध्र व और भव्य की अपेक्षा अधू व है।
ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों में से कम की गई पूर्वोक्त अनन्तानुबन्धिचतुष्क, यशःकीर्ति और संज्वलन लोभ इन छह प्रकृतियों की अजघन्य प्रदेशसत्ता सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार की है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ अनन्तानुबन्धिचतुष्क के उद्वलक क्षपितकर्मांश किसी जीव के सत्ता में जब उसकी एक आवलिका शेष रहे तब जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। उसका काल मात्र एक समय होने से वह जघन्य प्रदेशसत्ता सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष सब सत्ता अजघन्य है । वह अजघन्य प्रदेशसत्ता अनन्तानुबन्धि की उद्वलना करने के बाद मिथ्यात्व के निमित्त से जब पुनः बन्ध करे तब होने से सादि है। उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, अर्थात् अभी तक जिन्होंने अनन्तानुबन्धि की उद्वलना नहीं की है, उनके अजघन्य प्रदेशसत्ता अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्र व जानना चाहिये। .
संज्वलन लोभ और यश:कीति की जघन्य प्रदेशसत्ता क्षपण के लिये उद्यत हुए क्षपितकर्माश जीव को यथाप्रवृत्तकरण (अप्रमत्तसंयतगुणस्थान) के चरम समय में होती है। वह एक समय मात्र की होने से सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष सब प्रदेशसत्ता अजघन्य है। वह अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम समय में गुणसंक्रम द्वारा
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