Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५२
४२६ विशेषार्थ-पूर्व में जैसे स्थितिसत्ता के प्रसंग में स्थिति के भेदों को बतलाया है, उसी प्रकार यहाँ अनुभागसत्ता के भेदों का निर्देश किया है
__ सत्तागत अनुभागस्थान तीन प्रकार के हैं—'अणुभागट्ठाणाइं तिहा' । इसका कारण यह है कि भिन्न-भिन्न रीति-प्रकार से सत्ता में रस का भेद होता है और इस भेद के हेतु हैं-बंध, उद्वर्तना,अपवर्तना और अनुभाग (रस) घात ।
इन तीनों भेदों में से बंध से जिनकी उत्पत्ति होती है, उनको बंधोत्पत्तिक कहते हैं। प्रत्येक समय प्रत्येक जीव किसी-न-किसी अनुभागस्थान का बंध करता ही रहता है। उसमें जव तक उद्वर्तना, अपवर्तना या रसघात द्वारा भेद न हो तब तक वह बंधोत्पत्तिक अनुभागस्थान कहलाता है। वह असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है। क्योंकि उसके हेतु असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं ।
उद्वर्तना-अपवर्तना रूप दो करणों से जो उत्पन्न होते हैं, वे हतोत्पत्तिक कहलाते हैं। क्योंकि 'हतात् उत्पत्तिर्येषां तानि हतोत्पत्तिकानि'-घात होने से जिनकी उत्पत्ति है वे हतोत्पत्तिक ऐसा व्युत्पत्त्यर्थ है । इसका तात्पर्य यह है कि-उद्वर्तना-अपवर्तना रूप दो करणों के द्वारा बंधावलिका के बीतने के बाद बंधे हुए अनुभाग में जो वृद्धि-हानि होती है और वृद्धि-हानि होने के द्वारा पूर्वावस्थान का विनाश होने से जो उत्पन्न हों वे हतोत्पत्तिक अनुभागस्थान कहलाते हैं।
अनुभागस्थान का बंध होने के अनन्तर और बंधावलिका के व्यतीत होने के बाद उद्वर्तना-अपवर्तना के द्वारा अनुभाग की असंख्य प्रकार से वृद्धि -हानि होती है । इस प्रकार सत्ता में उद्वर्तना-अपवर्तना द्वारा जो रस के भेद होते हैं वे हतोत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थान कहलाते हैं। वे बंधोत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थानों से असंख्यातगुणे हैं। इसका कारण यह है कि बंध से उत्पन्न हुए-बंधे हुए एक-एक
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