Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ मात्र इतना विशेष है कि 'हासाईरहियाण'हास्यादि षट्क रहित शेष मति, श्रुत, अवधि ज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शनावरण, संज्वलनचतुष्क, वेदत्रिक और अंतरायपंचक, इन अठारह देशघाति प्रकृतियों की जघन्य सत्ता स्थानापेक्षा एकस्थानक और धातित्व की अपेक्षा देशघाति समझना चाहिए । अर्थात् इन अठारह प्रकृतियों की देशघाति और एकस्थानक रस की जघन्य सत्ता होती है और इसके सिवाय शेष सब अनुभागसंक्रम के सदृश जानना चाहिए।
अब देशघाति होने पर भी मनपर्यायज्ञानावरण आदि प्रकृतियों सम्बन्धी विशेषता को स्पष्ट करते हैं
मणनाणे दुट्ठाणं देसघाई य सामिणो खवगा।
अंतिमसमये सम्मत्तवेयखीणंतलोभाणं ॥१५०॥ शब्दार्थ-मणनाणे-मनपर्यायज्ञानावरण का, दुट्ठाणं-द्विस्थानक, देसघाई-देशघाति, य-और, सामिणो-स्वामी, स्वगा-क्षपक, अंतिमसमये-अंतिम समय में, सम्मत्त-सम्यक्त्वमोहनीय, वेय-वेदत्रिक, खोणंत-क्षीणमोहगुणस्थान में क्षय होने वाली, लोभाणं-संज्वलन लोम का।
गाथार्थ-मनपर्यायज्ञानावरण का जघन्य अनुभागसत्कर्म स्थानापेक्षा द्विस्थानक और घातित्वापेक्षा देशघाति जानना चाहिए तथा सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक, क्षीणमोहगुणस्थान में क्षय होने वाली प्रकृतियों और संज्वलन लोभ का जघन्य अनुभागसत्कर्म अपने-अपने अंतिम समय में जानना चाहिए और स्वामी क्षपक
विशेषार्थ-'मणनाणे दृवाणं' अर्थात् मनपर्यायज्ञानावरण की स्थानापेक्षा द्विस्थानक रस की और घातित्व की अपेक्षा देशघाति रस की जघन्य सत्ता जानना चाहिए तथा जो उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामी हैं उनको ही उत्कृष्ट अनुभागसत्ता का स्वामी समझना चाहिए और
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