Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
संज्वलन लोभ की जघन्य स्थितिसत्ता का स्वामी सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव है ।
ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता का स्वामी क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव है । तथा
पूर्वोक्त से शेष रही पंचानवे (६५) प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामी अयोगिकेवली भगवान हैं ।
इस प्रकार से उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामियों को जानना चाहिये | अब स्थिति के भेदों का विचार करते हैं । स्थिति के भेद
जावेगिंदिजहन्ना नियगुक्कोसा हिताव ठिइठाणा । नेरंतेरण हेट्ठा खवणाइसु संतरा इंपि ॥१४८ |
तक,
शब्दार्थ - जावेगिंदि - एकेन्द्रियप्रायोग्य जहन्ना - जधन्य, नियगुक्कोसा- अपनी उत्कृष्ट स्थिति, हि - निश्चय से, ताव — उनके, ठिठाणा — स्थितिस्थान, नेरंत रेण- निरन्तरता से, हेट्ठा- नीचे, खवणाइस - क्षपकादि में, संतराइपि-सांतर मी ।
गाथार्थ - अपने - अपने उत्कृष्ट स्थितिस्थान से लेकर एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य स्थिति तक के स्थान नाना जीवों की अपेक्षा निरन्तरता से होते हैं और उनसे नीचे के स्थितिस्थान क्षपकादि के सांतर भी होते हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में स्थितिस्थानों' का प्रमाण बतलाते हुए उनके निरन्तर और सांतर रूप से पाये जाने का निर्देश किया है ।
१
एक समय में एक साथ जितनी स्थिति सत्ता में हो उसे स्थितिस्थान कहते हैं । जैसे किसी जीव को उत्कृष्ट स्थिति सत्ता में हो वह पहला स्थान, इसी प्रकार किसी जीव को समयोन उत्कृष्ट स्थिति सत्ता में हो वह दूसरा स्थान किसी जीव को दो समयन्यून उत्कृष्ट स्थिति सत्ता में हो वह तीसरा स्थान, इस प्रकार समय-समय न्यून करते करते वहाँ तक जानना चाहिये यावत् एकेन्द्रिय योग्य जघन्य स्थिति प्राप्त हो जाये ।
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