Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४२
विशेषार्थ - गाथा में अयोगिकेवलीगुणस्थान की सत्तायोग्य प्रकृतियों का निर्देश किया है
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साता - असातावेदनीय में से अन्यतर (कोई एक ) वेदनीय, उच्चगोत्र और अयोगिकेवली के चरम समय में उदययोग्य मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, सुभगनाम, आदेयनाम, यशः कीर्तिनाम और तीर्थंकरनाम रूप नामकर्म की नौ तथा मनुष्यायु इन बारह प्रकृतियों की सत्ता अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय तक होती है । तथा
पूर्वोक्त से शेष रही अन्यतर वेदनीय, देवद्विक, औदारिकसप्तक, वैक्रिय सप्तक, आहारकसप्तक, तेजस - कार्मणसप्तक, प्रत्येक, संस्थानषट्क, संहननषट्क, वर्णादि बीस, विहायोगतिद्विक अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, मनुष्यानुपूर्वी, निर्माण, अपर्याप्त और नीचगोत्र रूप तेरासी प्रकृतियों की सत्ता अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होती है । अर्थात् द्विचरम समय में इन तेरासी प्रकृतियों की सत्ता का क्षय होता है । जिससे चरम समय में इनकी स्वरूप सत्ता नहीं रहती है ।
पूर्वोक्त प्रकार से एक - एक प्रकृति की सत्ता का स्वामित्व जानना चाहिये तथा अनेक प्रकृतियों के समुदाय - प्रकृतिसत्कर्मस्थान के स्वामित्व का विचार आगे सप्ततिका संग्रह में किये जाने से यहाँ कथन नहीं किया है ।
इस प्रकार प्रकृतिसत्कर्म सम्बन्धी निरूपण करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त स्थितिसत्कर्म का विवेचन प्रारम्भ करते हैं ।
स्थितिसत्कर्म प्ररूपणा
स्थितिसत्कर्म प्ररूपणा में दो अनुयोगद्वार हैं- सादि-अनादि प्ररूपणा और स्वामित्व प्ररूपणा । इनमें से पहले सादि-अनादि प्ररूपणा का विचार करते हैं ।
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