Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२०
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शब्दार्थ-देवो-देव, जहन्नयाऊ-जघन्यायु, दोहुवट्टित्त -दीर्घस्थिति की उद्वर्तना कर, मिच्छ-मिथ्यात्व, अन्तम्मि-अन्त में, चउनाण-चार ज्ञानावरण, दसतिगे-दर्शनत्रिक का, एगिदिगए-एकेन्द्रिय में गये हुए के, जहन्नुदयं-जघन्य प्रदेशोदय ।
__ गाथार्थ-जघन्यायु वाला देव उत्पन्न होकर अन्तर्मुहर्त के बाद अंत में सम्यक्त्व से मिथ्यात्व में जाये और वहाँ दीर्घस्थिति बांधकर और सत्तागत स्थिति की उद्वर्तना कर एकेन्द्रिय में जाये तो उस एकेन्द्रिय के चार ज्ञानावरण और तीन दर्शनावरण का जघन्य प्रदेशोदय होता है
विशेषार्थ-जघन्य प्रदेशोदय के स्वामियों के विचार के प्रसंग में सर्वत्र क्षपितकर्मांश जीव को स्वामित्व का अधिकारी समझना चाहिये।
इस जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व के विचार को मतिज्ञानावरण, श्र तज्ञानावरण, मनपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणरूप चार ज्ञानावरण और चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण रूप तीन दर्शनावरण कुल सात प्रकृतियों से प्रारम्भ करते हैं
'देवो जहन्न याऊ' अर्थात् दस हजार वर्ष की आयु वाला क्षपितकर्मांश कोई देव उत्पन्न होने के अनन्तर अन्तमुहूर्त बीतने पर सम्यक्त्व प्राप्त करे और उस सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त न्यून दस हजार वर्ष पर्यन्त पालन कर अन्तिम अन्तमुहूर्त में मिथ्यात्व को प्राप्त हो और वह मिथ्यात्वी देव अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाला होकर इन मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियों की अन्तमुहूर्त पर्यन्त उत्कृष्ट स्थिति बांधे और उस समय बहुत से दलिकों की उद्वर्तना करे यानि सत्तागत दलिकों की स्थिति में वृद्धि करे-नीचे के स्थान के दलिकों को ऊपर के स्थान के दलिकों के साथ भोगने योग्य करे और उसके बाद संक्लिष्ट परिणाम होते हुये हो काल करके वह देव एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो । तब वह एकेन्द्रिय उत्पत्ति के पहले समय में मतिज्ञानावरणादि उक्त चार
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