Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३४
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मोहगुणस्थान पर्यन्त के सभी जीव निद्राद्विक की सत्ता के स्वामी हैं । इसी प्रकार क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त ज्ञानावरणपंचक, अतंरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों की सत्ता है, आगे नहीं होती है ।
चारों आयु की अपने-अपने भव के अंत समय पर्यन्त सत्ता होती है, अनन्तरवर्ती भव में नहीं होती है । तथा
तिसु मिच्छत्तं नियमा अट्ठस ठाणेसु होई भइयव्वं । सासायमि नियमा सम्मं भज्जं दससु संतं ॥ १३४ ॥
शब्दार्थ - तिसु-तीन में मिच्छत्त - मिथ्यात्व नियमा - अवश्य, नियम से, अट्ठसु - आठ, ठाणेसु - गुणस्थानों में, होइ―― होती है, भइयव्वं - भजना से, सासायमि - सासादन में, नियना - अवश्य, सम्मं - सम्यक्त्व, भज्जं - भजना से, बससु - दम गुणस्थानों में, संतं - सत्ता ।
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गाथार्थ - आदि के तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता अवश्य होती है और उसके बाद के आठ गुणस्थानों में भजना से तथा सासादन में सम्यक्त्वमोहनीय की अवश्य सत्ता होती है और दस गुणस्थानों में भजना से होती है ।
विशेषार्थ - गाथा में मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय की निश्चित और भजनीय सत्ता का निर्देश किया है। इनमें से पहले मिथ्यात्व की सत्ता का विचार करते हैं
'तिसु मिच्छत्तं नियमा' आदि के तीन- मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र - गुणस्थानों में मिथ्यात्वमोहनीय की सत्ता नियम से ( अवश्य ) होती है और 'अट्ठस ठाणेसु होइ भइयव्वं अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशांतमोह गुणस्थान पर्यन्त आठ गुणस्थानों में भजना से होती है । यानि सत्ता होती भी है और नहीं भी होती है। जो इस प्रकार जानना चाहिए
अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व का उपार्जन करते हुए जिन्होंने मिथ्यात्व का क्षय किया है, उनके तो
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