Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३७
क्षपक के अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में जिस स्थान पर आठ कषायों का क्षय हुआ है, उस स्थान से संख्यात स्थितिखंडों पर्यन्त यानि अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के जिस समय में आठ कषायों का क्षय हुआ है, उस समय से लेकर संख्याता स्थितिघात जितने समय हों उतने समय पर्यन्त निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्याद्धि इस स्त्यानद्धित्रिक और स्थावर आदि नामकर्म की तेरह प्रकृतियों की सत्ता होती है। उसके बाद नहीं होती है। इसका कारण यह है कि उतने काल में उनका क्षय होता है। किन्तु उपशमश्रोणि की अपेक्षा उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त सत्ता होती है। स्थावर आदि तेरह प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-- थावरतिरिगइदोदो आयावेगिदिविगलसाहारं । नरयदुगुज्जोयाणि य दसाइमेगंततिरिजोग्गा ॥१३७॥
शब्दार्थ-पावरतिरिगइदोदो-स्थावरद्विक और तिर्यंचद्विक, आयावआतप, एगिदि--एकेन्द्रिय, विगल-विकलेन्द्रियत्रिक साहारं-साधारण, नरयदुग-नरकद्विक, उज्जोयाणि-उद्योत, य-और, दसाइम-इन में से मादि की दस, एगंततिरिजोग्गा-एकान्तत: तिर्यंचप्रायोग्य ।
गाथार्थ - स्थावरद्विक, तिर्यंचद्विक, आतप, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियत्रिक, साधारण, नरकद्विक और उद्योत ये नामकर्म की तेरह प्रकृतियां हैं। इनमें से आदि को दस एकांततः तिर्यंचप्रायोग्य हैं ।
विशेषार्थ- स्थावर और सूक्ष्म रूप स्थावरद्विक, तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी रूप तिर्यंचद्विक, आतप, एकेन्द्रियजाति, वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति रूप विकलेन्द्रियत्रिक, साधारण, नरकगति, नरकानुपूर्वी रूप नरकद्विक और उद्योत-ये स्थावर आदि नामकर्म की तेरह प्रकृतियां हैं। इनमें से स्थावर से लेकर चतुरिन्द्रिय जाति पर्यन्त दस प्रकृतियों का उदय मात्र तिर्यंचगति में ही होने से एकान्त
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